मेरा आँगन

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Wednesday, November 14, 2007

दो बाल कथाएँ




:सुकेश साहनी

ऊँचाई



उदघाट्न समारोह में बहुत से रंगबिंरगे, खुबसूरत, गोल–मटोल गुब्बारों के बीच एक काला, बदसूरत गुब्बारा भी था, जिसकी सभी हँसी उड़ा रहे थे।
‘‘देखो, कितना बदसूरत है,’’ गोरे चिट्टे गुब्ब्बारे ने मुँह बनाते हुए कहा, ‘‘देखते ही उल्टी आती है।’’
‘‘अबे, मरियल!’’ सेब जैसा लाल गुब्बारा बोला, ‘‘तू तो दो कदम में ही टें बाल जाएगा, फूट यहाँ से!’’
‘‘भाइयों! ज़रा इसकी शक्ल तो देखो,’’ हरे–भरे गुब्बारे ने हँसते हुए कहा, ‘‘पैदाइशी भुक्खड़ लगता है।’’
सब हँसने लगे, पर बदसूरत गुब्बारा कुछ नहीं बोला। उसे पता था ऊँचा उठना उसकी रंगत पर नहीं बल्कि उसके भीतर क्या है, इस पर निर्भर है।
जब गुब्बारे छोड़े गए तो काला, बदसूरत गुब्बारा सबसे आगे था।


अक्ल बड़ी या भैंस




स्कूल से घर लौटते ही उदय ने चक्की के दो भारी पाट जैसे–तैसे स्टोर से बाहर निकाल लिए। फिर उन्हें लोहे की एक छड़ के, दोनों सिरों पर फंसा कर भारोत्तोलन का प्रयास करने लगा। चक्की के पाट बहुत भारी थे। प्रथम प्रयास में ही उसके पीठ में दर्द जागा और वह चीख पड़ा।
उसकी चीख सुनकर माँ रसोईघर से दौड़ती हुई आ गई। उदय की पीठ में असहनीय पीड़ा हो रही थी। उन्होंने उदय को तब कुछ नहीं कहा। वे उदय को एक तरह से एक अच्छा लड़का मानती थी। उदय जब कुछ राहत–सी महसूस करने लगा तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, तुम्हें आज यह क्या सूझी?’’
जवाब में उदय की आँखें भर आईं, ‘‘माँ, आज स्कूल में मदन ने फिर मेरा हाथ उमेठ दिया। वह मुझसे बहुत तगड़ा है। मैं उससे भी ज्यादा तगड़ा बनूँगा।’’
‘‘अच्छा, पहले यह बताओ, स्कूल में तुम्हारे अध्यापक किसे अधिक चाहते हैं, तुम्हें या मदन को?’’
‘‘मुझे।’’
माँ ने उसे समझाया ‘‘तुम्हारी बातों से स्पष्ट है कि मदन में शारीरिक बल है, बुद्धि नहीं है। बुद्धिमान आदमी अपने गुण की डींगे नहीं हाँकता। तुम चाहो तो अपनी बुद्धि के बल पर उसका घमंड दूर कर सकते हो।’’
माँ के समझाने से उदय को नई शक्ति मिली! वह सोचने लगा सोचते–सोचते उसकी आँखें खुशी से चमक उठीं।
अगले दिन खेल के मैदान में उदय अपने कुछ मित्रों के साथ खड़ा था। तभी वहाँ मदन भी आ गया। अपनी आदत के मुताबिक आते ही उसने डींग हाँकनी शुरू की, ‘‘देखो, मैं यह पत्थर कितनी दूर फेंक सकता हूँ।’’ इतना कहकर वह एक भारी से पत्थर को फेंक कर दिखाने लगा।
‘‘मदन, मुझसे मुकाबला करोगे?’’ उदय ने पूछा,
‘‘अब तू! जा मरियल, तू क्या खा कर मेरा मुकाबला करेगा?’’ मदन ने उसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा।
‘‘ज्यादा घमंड ठीक नहीं होता, ‘‘उदय ने अपना रूमाल उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा ‘‘इस रूमाल को ही जरा उस पत्थर तक फेंक कर दिखा दो।’’
‘‘बस ये....ये लो।’’ मदन ने पूरी ताकत से रूमाल फेंका। रूमाल हवा में लहराता हुआ पास ही गिर गया।
उदय ने हँसते हुए कहा, ‘‘तुम इस जरा से रूमाल को ही फेंक पाए, पर मैं इस रूमाल के साथ–साथ एक पत्थर को भी तुमसे अधिक दूरी पर फेंक सकता हूँ।’’ यह कह कर उदय ने रूमाल में पत्थर लपेटा और उसे काफी दूर फेंक दिया। सभी लड़के जोर–जोर से तालियाँ बजाकर हंसने लगे। मदन का चेहरा मारे शर्म के लाल हो गया। वह चुपचाप वहाँ से खिसक गया।
शाम को उदय खुशी–खुशी स्कूल से लौट रहा था। वह आज की घटना जल्दी से जल्दी अपनी माँ को बताना चाहता था।

1 comment:

सुधाकल्प said...

बुद्धि बड़ी है ,बुद्धि में शक्ति है .बुद्धिमान का आसन सबसे ऊँचा होता है इसका अहसास बाल कहानियों द्वारा भली प्रकार हुआ है I
सुधा भार्गव