मेरा आँगन

मेरा आँगन

Sunday, December 20, 2009

पानी



रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
मैं पानी हूँ मैं जीवन हूँ
मुझसे सबका नाता ।
मैं गंगा हूँ , मैं यमुना हूँ
तीरथ भी बन जाता ।
मैं हूँ निर्मल पर दोष सभी ,
औरों के हर लेता ।
कल तक दोष तुम्हारे थे जो ,
अपने में भर लेता ।
पर सोचो तो मैं यों कब तक ,
कचरा भरता जाऊँ !
मुझको जीवन भी कहते हैं ,
मैं कैसे मरता जाऊँ !
गन्दा लहू बहा अपने में
कब तक चल पाता तन
मैं धरती की सुन्दरता हूँ ,
हर प्राणी की धड़कन ।
मेरी निर्मलता से होगी,
धरती पर हरियाली ।
फसलों में यौवन महकेगा,
हर आँगन दीवाली ।
नदियाँ ,झरने ,ताल-तलैया ,
कुआँ हो या कि सागर ।
रूप सभी ये मेरे ही हैं,
एक बूँद या गागर ।
हर पौधे की हर पत्ती की
प्यास बुझाऊँ जीभर ।
पर जीना दूभर होगा ये,
दूषित हो जाने पर ।
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Wednesday, October 28, 2009

विजया दशमी मंगलमय हो !

विजया दशमी मंगलमय हो !

विजया दशमी मंगलमय हो !

जीवन सबका सदा अभय हो !

दूर     अभावों   की  बस्ती से,

हो प्यार ,तन-मन निरामय हो !

-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Monday, September 14, 2009

‘कारगिल युद्ध’ एक मंजिल



वैशाली काम्बोज कक्षा 9

आँखों में ख्वाब लिये हम सब चल दिये।

रस्ता था ऐसा कभी देखा नहीं,

कठिनाई भी इतनी कभी सही नहीं,

आँखों में था ख्वाब कि कुछ कर दिखाना है,

और अपनी मंजिल को पाना है ।

आँखों में ख्वाब लिये हम सभी जवान चल दिये

अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जाना था,

मंजिल को पाना था, दुश्मनों को मार गिराना था,

देश का नाम बढ़ाना था, और बढ़ते ही जाना था,

आँखों में ख्वाब लिये हम सभी जवान चल दिये।

सर्द मौसम से लड़ते हुए, पहाड़ियों पर चढ़ते हुए,

सीनों पर गोली खाते हुए दुश्मनों को मार गिराते हुए,

मंजिल को पाते हुए आँखों में ख्वाब लिये,

हम सभी जवान चल दिये।

मुश्किलों का सामना कर दिखाया,

अपनी मँजिल को पाया।

पर्वत शिखर पर भारत का झंडा लहराया,

यह था ऐसा लम्हा जिसे मुश्किल था भूल पाना,

बस अपने देश पर है मर मिट जाना,

यही संदेश है हमारा, यही संदेश है हमारा।

वैशाली काम्बोज

कक्षा 9 ब

केन्द्रीय विद्यालय, आवडी

चेन्नै-55

Monday, September 7, 2009


बच्चों के मन में सेंध लगानी होगी
31 अगस्त ,2009,प्रगति मैदान का प्रगति ऑडिटोरियम, अवसर दिल्ली पुस्तक मेला । नेशनल बुक ट्रस्ट इण्डिया ने विचार गोष्ठी-‘बच्चों के लिए पुस्तकों का लेखन ,चित्रांकन ,विपणन : वर्त्तमान चुनौतियाँ’ का आयोजन किया । गोष्ठी की अध्यक्षता देवेन्द्र मेवाड़ी ने की ।विचार गोष्ठी में अलका पाठक , मधु पन्त , और दिनेश मिश्र ने अपने विचार प्रकट किए ।साथ ही ‘सौर मण्डल की सैर’( लेखक-देवेन्द्र मेवाड़ी, चित्रांकन-अरूप गुप्ता ),हमारे जल -पक्षी ( राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह),अंजाम (मौलवी क़मर अब्बास,चित्रांकन:हाज़ी बिन सुहेल)पुस्तकों का लोकार्पण किया गया। पुस्तक लोकार्पण विभिन्न विद्यालयों के बच्चों ने किया ।
नेशनल बुक ट्रस्ट इण्डिया के सम्पादक श्री मानस रंजन महापात्र कई महीने से विचार गोष्ठी के माध्यम से वैचारिक जाग्रति का अभ्यान चलाए हुए हैं । आपने विषय का प्रवर्तन करते हुए कहा कि बच्चों के लिए कुछ करें। वक्ताओं का आह्वान करने से पूर्व आज की विचार गोष्ठी के संचालक श्री पंकज चतुर्वेदी ने कहा –‘बच्चों का वर्ग बहुत बड़ा है,जो किताबों का पाठक है। लेखक ,चित्रकार ,प्रकाशक सब इसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हैं । बचपन को याद करना बहुत सुखद होता है।सुकून देने के लिए बच्चों की एक अहम भूमिका होती है । आज जो नीतियाँ समय के साथ नहीं चल पा रही हैं , उन्हें बदलना पड़ रहा है।
श्रीमती अलका पाठक ने अपने बचपन को याद करते हुए कहा कि हमने माता-पिता से किताबें खरीदने की ज़िद की। लेखक के दायित्वबोध पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि बाल साहित्य –लेखन अपने बीते हुए कल का आने हुए कल संवाद करना है । हमारे बचपन में न दैत्य थे न राजा-रानी । आज रंगरूप बदलकर वह सच, बड़ों के अधूरे सपने का बोझ बन कर आ गया है। अब वह पढ़ लेना है ,जो पढ़ा नहीं गया ।‘एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधा धरा । चारों ओर वह थाली फिरे ,मोती उससे एक न गिरे।’ का आसमान शहर में कहाँ है? बाल साहित्य में जानवर पात्र हैं ,पर मानव की तरह चालाक हैं ।बच्चों की दुनिया में चाचा चौधरी भी आ टपकते हैं । ‘नदी की धारा में नानू की नाव’ चल पड़ती है ।बच्चों के पास समय की कमी है लेकिन सपनों की कमी नहीं है। बालगीत ,खेलगीत कहीं पीछे रह गए हैं। बच्चों को पढ़ने के लिए दिया गया है,उसमें कहा क्या गया है; यह महत्त्वपूर्ण है । कोई भी बाल- पत्रिका बच्चों के माँ-बाप की तरह है। अन्य पत्रिकाओं में बाल साहित्य की चर्चा होती ही नहीं । ‘बरसो राम धड़ाके से ,बुढ़िया मर गई फ़ाके से’ या ‘अल्लाह मेघ दे’ जैसे जनगीत कहाँ हैं।
डॉ मधु पन्त ने कहा-‘मेरी नज़र में वह आम बच्चा रहा है जो पुस्तक पढ़ने से वंचित रह जाता है । आज का दुखद सच यह है कि बच्चे का बचपन छीनकर , उसके सपनों को तोड़कर ,उसे बोंज़ाई बनाकर छोड़ देते हैं । उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास की बात कहीं दूर खो जाती है । अभिभावक या शिक्षक ,आज सबके लिए चुनौतियाँ हैं। लेखक बनने के लिए बच्चों के मन में सेंध लगानी होगी, तभी वह बच्चों के लिए लिख सकेगा ।लेखक को बच्चा बनना पड़ेगा जो बहुत कठिन है; क्योंकि हमने बच्चे को असमय बूढ़ा बना दिया है। । चित्रकार को शब्दों का पूरक होना चाहिए ।आच्छा चित्रकार वह है जो अपनी संकल्पना से बच्चों को किताबों की दुनिया की सैर करा दे। किताब इतनी आकर्षक हो कि बच्चे का हाथ खुद-बखुद किताब की तरफ़ बढ़े । चित्रों की चमक ,अक्षरों का आकार, उपयुक्त दाम बच्चों को किताब खरीदने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। तालों मे बन्द किताबें कितनी बेचैन हैं , इसको महसूस करें।बच्चों की पहुँच किताबों तक बेरोकटोक होने दें।’
श्री दिनेश मिश्र ने कहा-बच्चों का साहित्य केवल मनोरंजन के लिए नहीं ,वरन् पूरे समाज और सृष्टि के निर्माण की शुरूआत है ।समाज ,परिवार देश में बच्चों की स्थिति क्या है , यही पैमाना है। देश के बज़ट में शिक्षा के लिए कितना बज़ट है और उसमें बच्चों के लिए कितना खर्च किया जाता है? आपका चरित्र इससे भी तय होता है कि आप उसे खर्च कैसे करते हैं? जो समाज बच्चों की अनदेखी करता है , वह अपने भविष्य को नष्ट कर रहा है। हमारे समाज में इस आत्मघाती प्रवृत्ति के सभी लक्षण मौज़ूद हैं। बाल-साहित्य लेखन के लिए समर्पण ज़रूरी है । बाल-साहित्य लेखन आपके लेखन के केन्द्र में है या ‘बाल –साहित्य भी लिखते हैं’ में अन्तर है । ‘यह है तो मैं हूँ , यह नही है तो मैं नहीं हूँ।’की सोच ज़रूरी है।बाल साहित्य देश की आवश्यकता है ; मेहरबानी नहीं है। बाल साहित्य में उपदेश नहीं होना चाहिए ; लेकिन केवल मनोरंजन ही हो, उचित नहीं है ।दिमाग के लिए भी खुराक होनी चाहिए । सही –गलत का विवेक भी होना चाहिए ।यदि ऐसा हो गया तो समझो आधी लड़ाई जीत ली।फ़ायदे की सुनामी से बचकर नेशनल नेटवर्क बनाया जाना चाहिए। सरकार यह कर सकती है, क्योंकि सरकार बेबस भले ही नज़र आए ,परन्तु होती नहीं ।मॉल बने तो वहाँ किताबों की दूकान भी हो । जब उपहार देने का मौका हो , किताबें दी जाएँ।बाल साहित्य मानवता का भविष्य है।
अध्यक्षीय भाषण में श्री देवेन्द्र मेवाड़ी ने कहा –हमने चिड़ियाँ , कलियाँ , बादल , नदियाँ झरने ,हवाएँ , देखे हैं । चीड़ के बीज गिरते देखे हैं।लेखकीय दायित्व पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि बच्चे से पूरी आत्मीयता महसूस करके लेखक को एक प्रकार से परकाया –प्रवेश करना पड़ता है । लेखक अपने में बच्चे को जीवित करेगा , तभी वह सार्थक सर्जन कर पाएगा । इस लेखन में चित्रकार भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है ।वह लेखक की कल्पना के बिम्बों को आकार ही नही देता वरन् चित्र के रूप में अनुवाद करता है ।माँ-बाप अपनी दमित इच्छाएँ बच्चे पर न लादें।बच्चे में सहजभाव से बढ़ने की अपार सम्भावनाएँ होती हैं। हमारी भाषाओं में हैरी पॉटर से भी अधिक उत्कृष्ट साहित्य है , उसे सामने लाया जाए।
दूसरे सत्र में पुस्तक –लोकार्पण का अभिनव प्रयोग किया गया ।सभि पुस्तकों का लोकार्पण विभिन्न विद्यालयों के विद्यार्थियों द्वारा कराया गया । अन्तर्राष्ट्रीय खगोल वर्ष 2009 के अवसर पर ‘सौर मण्डल की सैर’ के लेखक और चित्रकार तथा ‘अंजाम’ के चित्रकार भी इस वसर पर मौजूद थे ।इस कार्यक्रम की सबसे बड़ी उपलब्धि थी इन पुस्तकों पर पढ़ी गई समीक्षा। ‘अंजाम’ (उर्दू पुस्तक)पर अमीना ने ‘सौर मण्डल की सैर’पर –खुशबू ,अनीता सपना चौधरी ,पूर्णिमा यादव राक्या परवीन ने ; ‘हमारे जल -पक्षी’ पर सेवानिवृत्त शिक्षिका श्रीमती विमला सचदेव की प्रेरणा से कमल ,हसीना ,नाज़,राधा , रेणु ने समीक्षाएँ प्रस्तुत कीं ।
श्री मानस रंजन महापात्र जी ने सबके प्रति आभार व्यक्त किया । इस प्रकार के सार्थक कार्यक्र्म की प्रस्तुति के लिए ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ और इसकी कर्मठ टीम ‘बधाई के पात्र हैं।
-प्रस्तुति- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
rdkamboj@gmail.com

Friday, August 21, 2009

शिक्षकों के लिए ई-मंच - टीचर्स आफ इंडिया

शिक्षकों के लिए ई-मंच - टीचर्स आफ इंडिया 
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि शिक्षक हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था के हृदय हैं। शिक्षा को अगर बेहतर बनाना है तो शिक्षण विधियों के साथ-साथ शिक्षकों को भी इस हेतु पेशेवर रूप से सक्षम तथा बौद्धिक रूप से सम्‍पन्‍न बनाए जाने की जरूरत है।

राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 में भी शिक्षक की भूमिका पर विशेष रूप से चर्चा की गई है। इसमें कहा गया है कि शिक्षक बहुमुखी संदर्भों में काम करते हैं। शिक्षक को शिक्षा के संदर्भों,विद्यार्थियों की अलग-अलग पृष्‍ठभूमियों,वृहत राष्‍ट्रीय और खगोलीय संदर्भों,समानता,सामाजिक न्‍याय, लिंग समानता आदि के उत्‍कृष्‍ठता लक्ष्‍यों और राष्‍ट्रीय चिंताओं के प्रति ज्‍यादा संवेदनशील और जवाबदेह होना चाहिए। इन अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए आवश्‍यक है कि शिक्षक-शिक्षा में ऐसे तत्‍वों का समावेश हो जो उन्‍हें इसके लिए सक्षम बना सके।

इसके लिए हर स्‍तर पर तरह-तरह के प्रयास करने होंगे। टीचर्स आफ इंडिया पोर्टल ऐसा ही एक प्रयास है। गुणवत्‍ता पूर्ण शिक्षा की प्राप्ति के लिए कार्यरत अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन (एपीएफ) ने इसकी शुरुआत की है। महामहिम राष्‍ट्रपति महोदया श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने वर्ष 2008 में शिक्षक दिवस इसका शुभांरभ किया था। यह हिन्‍दी,कन्‍नड़, तमिल,तेलुगू ,मराठी,उडि़या, गुजराती ‍तथा अंग्रेजी में है। जल्‍द ही मलयालम,पंजाबी,बंगाली और उर्दू में भी शुरू करने की योजना है। पोर्टल राष्‍ट्रीय ज्ञान आयोग द्वारा समर्थित है। इसे आप www.teachersofindia.org पर जाकर देख सकते हैं। यह सुविधा नि:शुल्‍क है।

क्‍या है पोर्टल में !

इस पोर्टल में क्‍या है इसकी एक झलक यहाँ प्रस्‍तुत है। Teachers of India.org शिक्षकों के लिए एक ऐसी जगह है जहाँ वे अपनी पेशेवर क्षमताओं को बढ़ा सकते हैं। पोर्टल शिक्षकों के लिए-

1. एक ऐसा मंच है, जहां वे विभिन्‍न विषयों, भाषाओं और राज्‍यों के शिक्षकों से संवाद कर सकते हैं।

2. ऐसे मौके उपलब्‍ध कराता है, जिससे वे देश भर के शिक्षकों के साथ विभिन्‍न शैक्षणिक विधियों और उनके विभिन्‍न पहुलओं पर अपने विचारों, अनुभवों का आदान-प्रदान कर सकते हैं।

3. शैक्षिक नवाचार,शिक्षा से सम्बंधित जानकारियों और स्रोतों को दुनिया भर से विभिन्‍न भारतीय भाषाओं में उन तक लाता है।

Teachers of India.org शिक्षकों को अपने मत अभिव्‍यक्‍त करने के लिए मंच भी देता है। शिक्षक अपने शैक्षणिक जीवन के किसी भी विषय पर अपने विचारों को पोर्टल पर रख सकते हैं। पोर्टल के लिए सामग्री भेज सकते हैं। यह सामग्री शिक्षण विधियों, स्‍कूल के अनुभवों, आजमाए गए शैक्षिक नवाचारों या नए विचारों के बारे में हो सकती है।

विभिन्न शैक्षिक विषयों, मुद्दों पर लेख, शिक्षानीतियों से सम्बंधित दस्‍तावेज,शैक्षणिक निर्देशिकाएँ, माडॅयूल्स आदि पोर्टल से सीधे या विभिन्न लिंक के माध्‍यम से प्राप्‍त किए जा सकते हैं।

शिक्षक विभिन्न स्‍तम्‍भों के माध्‍यम से पोर्टल पर भागीदारी कर सकते हैं।

माह के शिक्षक पोर्टल का एक विशेष फीचर है। इसमें हम ऐसे शिक्षकों को सामने ला रहे हैं,जिन्‍होंने अपने उल्लेखनीय शैक्षणिक काम की बदौलत न केवल स्‍कूल को नई दिशा दी है, वरन् समुदाय के बीच शिक्षक की छवि को सही मायने में स्‍थापित किया है। पोर्टल पर एक ऐसी डायरेक्‍टरी भी है जो शिक्षा के विभिन्‍न क्षेत्रों में काम कर रही संस्‍थाओं की जानकारी देती है।

आप सबसे अनुरोध है कि कम से कम एक बार इस पोर्टल पर जरूर आएँ। खासकर वे साथी जो शिक्षक हैं या फिर शिक्षा से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं। अगर आपका अपना कोई ब्‍लाग है तो इस जानकारी को या टीचर्स आफ इंडिया के लिंक को उस पर देने का कष्‍ट करें।

इस पोर्टल के बारे में अधिक जानकारी के लिए आप मुझसे
पर संपर्क कर सकते हैं।


तो मुझे आपका इंतजार रहेगा। 

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Saturday, August 15, 2009

जागरूक भारत



रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
  धर्मान्धता संक्रामक रोग है , मतान्धता विष है , जातिवाद पागलपन है , क्षेत्रीयतावाद राष्ट्र की जड़ों को खोखला करने वाला घुन है और भ्रष्टाचार इन सबका बाप है । स्वयं को श्रेष्ठ न होते हुए भी श्रेष्ट होने की भावना इन मरणान्तक व्याधियों को बढ़ावा देती है । ये सभी व्याधियाँ राष्ट्र को कमज़ोर करती हैं ।
  चुनाव के समय इनका असली प्रकोप देखा जा सकता है । अच्छे लोकतन्त्र के लिए ये सबसे बड़ा खतरा हैं । इनका सहारा लेकर जब तक वोट माँगने का सिलसिला बरकरार रहेगा ; तब तक ये राष्ट्र को कुतरते रहेंगे । इस अवसर पर जैसे भी जीत मिले ; उसी तरह के हथकण्डे अपनाए जाते हैं ।
  आर्थिक शक्तियाँ कुछ लोगों तक सीमित होती जा रही हैं ।भ्रष्टाचार शिष्टाचार का स्थान लेता जा रहा है । शिक्षा समर्पित लोगों के हाथ में न होकर व्यापारियों के हाथ में चली गई है ।यह ख़तरा देश का सबसे बड़ा ख़तरा है । भू माफिया की तरह शिक्षा माफिया का उदय इस सदी की सबसे बड़ी विडम्बना और अभिशाप हैं । भारत की बौद्धिक सम्पदा का एक बड़ा भाग उच्च शिक्षा से निकट भविष्य में वंचित होने वाला है । इसका कारण बनेंगी लूट का खेल खेलनेवाली धनपिपासु शिक्षा संस्थाएँ; जहाँ शिक्षा दिलाने की औक़ात भारत के ईमानदार 'ए' श्रेणी के अधिकारी के बूते से भी बाहर हो रही है । सामान्यजन किस खेत की मूली है ।
  एक वर्ग वह है जो सरकार की तमाम कल्याणकारी योजनाओं को अपनी तिकड़म से पलीता लगाने में माहिर है । वह सारी सुविधाओं को आवारा साँड की तरह चर जाता है । तटस्थ रहकर काम नहीं चल सकता । हमें समय रहते चेतना होगा; अन्यथा हम भी बराबर के कसूरवार होंगे । समृद्ध भारत के लिए हमें सबसे पहले जागरूक भारत बनाना होगा । सोया हुआ
उदासीन भारत सब प्रकार की कमज़ोरियों का कारण न बने ; हमें यह प्रयास करना होगा । हमें आन्तरिक षड़यन्त्रों पर काबू पाना होगा; तभी हम देश के बाहरी दुश्मनों का मुकाबला कर सकते हैं । हम यह बात गाँठ बाँध लें कि कोई देश किसी का सगा नहीं होता , सगा होता है उनका राष्ट्रीय हित । हम राष्ट्रीय हितों की बलि देकर सम्बन्ध बनाएँगे तो धोखा खाएँगे, जैसा अतीत में खाते रहे हैं ।
15 अगस्त 09


Wednesday, July 15, 2009

भावना का फल




भावना का फल

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

अँधेरी रात थी । हाथ को हाथ नहीं सूझता था ।एक बूढ़ा साधु गाँव में पहुँचा । वह थककर चूर हो चुका था ।जिसका घर सबसे पहले पड़ेगा; वहीं रुकना ठीक रहेगा- उसने सोचा । सामने ही एक बहुत बड़ा मकान था ।उसने दरवाज़ा खटखटाया ।एक भारी-भरकम आदमी निकलकर आया –“क्यों क्या बात है ? किससे मिलना है ? क्या काम है ?

मुसाफ़िर हूँ ।रात भर ठहरना चाहता हूँ ।थक गया हूँ ।सुबह होते ही चला जाऊँगा।

सुबह होते ही चला जाऊँगा- मोटा आदमी मिनमिनाया-जाओ ! अपना रास्ता नापो ले आते हैं चोर-उचक्के साधु बनकर -और उसने भड़ाक् से दरवाज़ा बन्द कर लिया। दरवाज़ा बन्द करने वाले थे सेठ मगन लाल। इनके यहाँ कोई खास रिश्तेदार भी आ जाए तो उसे जितने दिन खिलाते-पिलाते, उतने दिन का किश्तों में उपवास ज़रूर रखते थे।

साधु आगे बढ़ा ।एक खण्डरनुमा घर में दिया टिमटिमा रहा था । दरवाज़ा खटखटाया तो एक कमज़ोर औरत ने दरवाज़ा खोला । साधु ने अँधेरा होने की बात की तो वह बोली –“आइए महाराज !इसे अपना ही घर समझिए।

घर में जो रूखा सूखा था, औरत ने साधु को आग्रहपूर्वक खिलाया । साधु की दृष्टि घर की हालत को परख रही थी । औरत बोली- मेरे पति कई साल पहले स्वर्ग सिधार गए ।थोड़ी-बहुत मेहनत मज़दूरी करती हूँ । उसी से घर चलता है । आपका ज़्यादा स्वागत सत्कार नहीं कर पाई। बच्चे भी छोटे-छोटे हैं ।इन्हें भी अच्छा खिला-पिला नहीं सकती । आपको इस घर में दिक्कत हो तो माफ़ करना।

सुबह साधु जब चलने लगा तो बोला-तुम सुबह के समय जो काम करने लगोगी , वही शाम तक करती रहोगी।औरत कुछ नहीं समझी । साधु अपनी राह निकल गया ।

वह उठी और बच्चों के लिए कुर्ता सिलने के लिए कपड़ा नापने लगी ।शाम तक कपड़ा ही नापती रह गई घर में कपड़े का ढेर लग गया । कपड़ा कई हज़ार का रहा होगा । वह उस कपड़े को बेचकर बरसों तक घर का खर्च चला सकती थी ।

सेठ मगनलाल के कानों में यह भनक पड़ी तो वह उतावला हो उठा और इस रहस्य का पता लगाने लगा ।

साधु कि बात सुनकर वह बहुत पछताया । उसने अपने दो नौकर साधु को ढूँढने के लिए पीछे-पीछे दौड़ा दिए ।अगले दिन वह साधु दूर के गाँव में मिला । आग्रह करके दोनों नौकर साधु को वापस ले आए। सेठ ने उसको खूब खिलाया पिलाया। साधु कई दिन तक सेठ के यहाँ खूब खाता-पीता रहा ।सेठ मन ही मन बहुत कुढ़ता रहा , पर बोला कुछ नहीं।जब साधु चलने लगा तो सेठ से बोला-तुम सुबह ही जो करने लगोगे ,शाम तक करते रहोगे-सुनकर सेठ की आँखें खुशी से चमक उठीं।

साधु कुछ ही दूर गया होगा कि सेठ के बगीचे में एक गधा घुस गया । सेठ का सहज क्रोध जाग उठा । गधे की इतनी हिम्मत कि बगीचे में आ घुसे !। वह गधे को निकालने के लिए दौड़कर गया । गधा उसे देखकर भागा ।सेठ भी पीछे पीछे दौड़ा ।गधा भी कभी इस गली में तो कभी उस गली में घुस जाता । सेठ जी भी पीछे पीछे ।

गाँव के सब लोग हँस रहे थे ; परन्तु सेठ को इसकी फ़िक्र नहीं थी ।वह थककर चूर हो गया ।दम निकला जा रहा था ।थकने के कारण गधा भी धीरे-धीरे चलने लगा ।सेठ ने भी रफ़्तार कम कर दी। सूर्यास्त होने तक सेठ जी उसके पीछे घूमते रहे । गधा गिर पड़ा ।सेठ जी भी बेदम होकर उसके पैरों के पास गिर पड़े ।




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ऊँटों का बटवारा


ऊँटों का बटवारा

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

गाँव में एक ज़मीदार रहता था ।उसके तीन बेटे थे । मरते समय उसने अपने तीनों बेटों को पास बुलाकर कहा –“मेरे पास सतरह ऊँट हैं ।इन्हें तुम आपस में बाँट लेना ।इतना ध्यान रहे कि किसी को भी उसके निर्धारित भाग से कम न मिले । बड़ा आधे ऊँट रख ले ।मँझला एक तिहाई और सबसे छोटा कुल ऊँटों का नौवाँ हिस्सा। बड़े के हिस्से में आधे ऊँट आते थे अर्थात् 8½ ऊँट ।वह ऊँट किस प्रकार ले ?आठ वह ले नहीं सकता था ।

मँझले के सामने भी यही परेशानी थी ।उसके हिस्से में छह ऊँट से कुछ कम आते थे । छोटे बेटे के हिस्से में दो ऊँट से कुछ कम , पूरे दो ऊँट भी नहीं । कई दिनों तक कुछ फ़ैसला नहीं हो सका ।

हारकर तीनों भाई पास के गाँव वाले एक बुद्धिमान् किसान के पास पहुँचे और उसे अपनी समस्या बताई । किसान ने कहा –‘ जितना तुम्हारा भाग है , तुम्हें उससे कुछ ज़्यादा ही मिल जाएगा ।इस पर तुम्हें एक दूसरे से कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए ।

सबने किसान की बात मान ली। किसान के पास एक ऊँट था ।उसने वह भी उन ऊँटों में मिला दिया । इस प्रकार अठारह ऊँट हो गए ।किसान ने सबसे पहले बड़े बेटे से कहा –“ तुम नौ ऊँट ले जा सकते हो । बस मेरा ऊँट नहीं लेना है।"
वह नौ ऊँट लेकर जल्दी से चलता बना ।
इसी प्रकार मँझले से कहा –“ तुम्हें छह ऊँट से कम मिलने थे । तुम मेरा ऊँट छोड़कर कोई छह ऊँट ले जा सकते हो।”
वह भी छह ऊँट लेकर खुशी से चलता बना ।
सबसे छोटे से कहा –“तुम दो ऊँट ले जा सकते हो।"
वह भी दो ऊँट लेकर चल दिया ।किसान का ऊँट बच गया और उनका बँटवारा भी ठीक ढंग से हो गया ।




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Thursday, June 18, 2009

महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ








ड्रीम 2007
एक अंक : 5 रुपए
सम्पादक :डॉ वी बी काम्बले
हिन्दी और अंग्रेज़ी में प्रकाशित होने वाली विज्ञान की महत्त्वपूर्ण पत्रिका है । इसमें प्रत्येक लेख दोनों भाषाओं में प्रकाशित किया जाता है ।विज्ञान में रुचि रखने वाले अध्यापकों एवं छात्रों के लिए एक ज़रूरी पत्रिका है । यह पत्रिका रटने के बजाय व्यावहारिक ज्ञान एवं वैज्ञानिक अभिरुचि को प्रोत्साहित करती है । विज्ञान को रोचक ढंग से प्रस्तुत करना इस पत्रिका का प्रमुख उद्देश्य है ।00000
विपनेट संवाद[ VIPNET NEWS ]
मूल्य :दो रुपए

सम्पादक : बी के त्यागी
सहायक सम्पादक : निमिष कपूर
इस संवाद पत्रिका में विज्ञान क्लब के समाचार और गतिविधियों की जानकारी रहती है ।इस समाचार पत्रिका में हिन्दी और अंग्रेजी में महत्त्वपूर्ण लेख एवं रोचक पहेलियाँ भी रहती हैं। विद्यालयों को भारत सरकार के इस पवित्र कार्य से ज़रूर जुड़ना चाहिए ।
पत्रिकाओं के मिलने का पता:-

विज्ञान प्रसार,सी-24 , कुतुब इंस्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110016
Vigyan Prasar ,C-24, Qutub Institutional Area New Delhi 110016
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प्रस्तुति-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Wednesday, June 3, 2009

पुस्तक समीक्षा


मास्टर जी ने कहा था :कमल चोपड़ा

ए आर एस पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स

1362, कश्मीरी गेट,

दिल्ली – 110 006


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इस बाल उपन्यास में एक ऐसे शरारती लड़के की कहानी है जिसका नाम किन्नू है। किन्नू अपने माँबाप की इकलौती संतान है। पिता गाँव के जमींदार हैं। रूप्एपैसे वाले आदमी हैं। गाँव में उनका बड़ा रौब है। इसी कारण अक्सर लोग उनसे घबराते कतराते हैं।

बेटा किन्नू अपने पिता के नक्शेकदम पर चल रहा था। गांव की पाठशाला में आए दिन अपने सहपाठियों को तंग करता था। उसको यह सब करना अच्छा लगता था। चाहे किसी का दिल दुखे, इसकी परवाह वह नहीं करता था। आए दिन कक्षा अध्यापक से उलझ जाता। पिटाई खाता और अध्यापक से बदला लेने की फिराक में रहता है ।

अध्यापक हमेशा उसे सुधर जाने की नसीहत देते। पर वह तो चिकना घड़ा था। इस कान से सुनता और दूसरे कान से अनसुना कर निकल जाता।

किन्नू की शरारत के कारण ही अध्यापक को स्कूल छोड़ना पड़ा। स्कूल किन्नू के पिता की दान राशि पर चलता था।

अचानक किन्नू के घर आग गई। माँबाप घर में फँस गए। पिता को लोग बचा नहीं पाए। माँ अकेली रह गई। किन्नू पढ़ालिखा नहीं था। मुनीम ने जमीनजायदाद पर कब्जा कर लिया। हार कर किन्नू शहर आ गया। किन्नू कई मुसीबतों में घिरा, अत्याचार भी सहा, ऐसे में उसे एक अपाहिज लड़की मिली जिसने किन्नू को भाई माना। किन्नू को समझ में आने लगा था कि काश उसने पढ़ाई को गंभीरता से लिया होता ! पुस्तक में कई रोचक प्रसंग हैं। लेखक की शैली वाकई प्रभावशाली है। पुस्तक का चित्रांकन सुन्दर है।

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-ललित किशोर मंडोरा

Monday, June 1, 2009

हर कदम परीक्षा



कमल चोपड़ा
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काम की तलाश में इधर–उधर धक्के खाने के बाद निराश होकर मधुकांत घर लौटने लगा तो पीछे से आवाज आई, ‘ऐ भाई, यहाँ कोई मजदूर मिलेगा क्या?’
मधुकांत ने मुड़कर देखा तो एक झुकी हुई कमर वाला बूढ़ा तीन गठरियाँ उठाए हुए खड़ा है। मधुकांत ने कहा, ‘‘हाँ बोलो क्या काम है? मैं ही मजदूरी कर लूँगा।’’
मुझे रामपुर जाना है....। दो गठरियाँ मैं उठा लूँगा पर.... मेरी एक गठरी रामपुर पहुँचवा दो, दो रूपए दूँगा। बोलो मंजूर है।
ठीक है। चलो.... आप बुजुर्ग हैं। आपकी इतनी मदद करना तो मैं यों भी फर्ज समझता हूँ।
मधुकांत ने गठरी उठाते हुए कहा, ‘चलिये काफी भारी गठरी है।’
‘हाँ.... इसमें एक–एक रुपये के सिक्के हैं।’ बूढ़े ने फुसफुसाते हुए कहा।
मधुकांत ने सुना तो सोचा, ‘होंगे मुझे क्या? मुझे तो अपनी मजदूरी से मतलब है।ये सिक्के कितने दिन चलेंगे? मधुकांत ने देखा, बूढ़ा उस पर नजर रखे हुए है। उसने सोचा ‘ये सोच रहा होगा कहीं ये भाग ही न जाए। पर मैं ऐसी बेईमानी और चोरी करने में विश्वास नहीं करता। मैं सिक्कों के लालच में फंसकर किसी के साथ बेईमानी नहीं करूँगा।
चलते–चलते आगे एक नदी आ गई। मधुकांत तो नदी पार करने के लिए झट से पानी में उतर गया पर बूढ़ा नदी के किनारे खड़ा रहा। मधुकांत ने कहा.....क्या हुआ? रूक क्यों गए?
‘बूढ़ा आदमी हूँ।’ मेरी कमर ऊपर से झुकी हुई है। दो–दो गठरियों का बोझ नहीं उठा सकता....कहीं मैं नदी में डूब ही ना जाऊँ। तुम एक गठरी और उठा लो....‘मजदूर एक रुपया और ले लेना।’
‘ठीक है लाओ।’
‘पर इसे लेकर कहीं तुम भाग तो नहीं जाओगे?’
‘क्यों, मैं क्यों भागूँगा?’
‘‘इसमें चाँदी के सिक्के हैं’
‘‘मैं आपको ऐसा चोर बेईमान दीखता हूं क्या?... बेफिक्र रहें मैं चांदी के सिक्कों के लालच में किसी को धोखा देने वालों में से नहीं हूँ.... लाइए ये गठरी मुझे दे दीजिये।’
दूसरी गठरी उठाकर मधुकांत ने नदी पार कर ली। चांदी के सिक्कों का लालच भी मधुकांत को नहीं डिगा पाया। थोड़ी दूर आगे चलने के बाद सामने एक पहाड़ी आ गई।
मधुकांत धीरे–धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगा लेकिन बूढ़ा अभी नीचे ही रूका हुआ था। मधुकांत ने कहा, ‘आइये ना, रुक क्यों गये?’’
‘‘मैं बूढ़ा आदमी हूं। ठीक से चल तो पाता नहीं हूँ , ऊपर से कमर पर एक गठरी का बोझ और उसके भी ऊपर पहाड़ी की दुर्ग चढ़ाई।’’
‘‘तो लाइये ये गठरी भी मुझे दे दीजिये। बेशक और मजदूरी भी मत देना।’’
‘‘पर इसे कैसे दे दूं? इसमें सोने के सिक्के हैं और अगर तुम लेकर भाग गए तो मैं बूढ़ा तुम्हारे पीछे भाग भी नहीं पाऊँगा।’’
‘‘बाबा मैं ऐसा आदमी नहीं हूं। ईमानदारी के चक्कर में ही तो मुझे मजदूरी करनी पड़ रही है वरना पहले मैं एक लाला जी के यहां मुनीम की नौकरी करता था। लालाजी मुझसे हिसाब में गड़बड़ करके लोगों को ठगने को कहते थे। मैंने ऐसा करने से मना कर दिया और नौकरी छोड़ कर चला आया।’ मधुकांत ने यों ही गप हाँकी।
‘‘पता नहीं तुम सच कह रहे हो या.....। खैर उठा लो ये सोने के सिक्कों वाली तीसरी गठरी भी। मैं धीरे–धीरे आता हूं। तुम मुझसे पहले पहाड़ी पार कर लो तो दूसरी तरफ नीचे रूककर मेरा इंतजार करना।’
मधुकांत सोने के सिक्कों वाली गठरी उठाकर चल पड़ा। बूढ़ा बहुत पीछे रह गया था। मधुकांत के दिमाग में आया, ‘अगर मैं भाग जाऊँ तो ये बूढ़ा तो मुझे पकड़ नहीं सकता और मैं एक झटके में मालामाल हो जाऊँगा। मेरी पत्नी जो मुझे रोज कोसती रहती है कितना खुश हो जाएगी। इतनी आसानी से मिलने वाली दौलत ठुकराना भी बेवकूफी है..... एक ही झटके में धनवान हो जाऊँगा। पैसा होगा तो इज्जत ऐश–आराम सब कुछ मिलेगा मुझे....।
मधुकांत के दिल में लालच आ गया और बिना पीछे देखे भाग खड़ा हुआ। तीन–तीन भारी गठरियों का बोझ उठाए–उठाए भागते–भागते उसकी साँस फूल गई।
घर पहुँचकर उसने गठरियां खोलकर देखीं तो अपना सिर पीटकर रह गया। गठरियों में सिक्कों जैसे बने हुए मिट्टी के ढेले ही थे। मधुकांत सोच में पड़ गया कि बूढ़े को इस तरह नाटक करने की जरूरत ही क्या थी। तभी उसकी पत्नी को मिट्टी के सिक्कों के ढेर से एक कागज मिला जिस पर लिखा था, यह नाटक इस राज्य के खजाने की सुरक्षा के लिए ईमानदार सुरक्षा मंत्री खोजने के लिए किया गया। परीक्षा लेने वाला बूढ़ा और कोई नहीं स्वयं महाराज ही थे। अगर तुम भाग न निकलते तो तुम्हें मंत्रिपद और मान सम्मान सब कुछ मिलता पर.....।
मधुकांत अपना सिर पीटकर रह गया, ‘मैं लालच ना करता तो मेरा ये जीवन की सफल हो जाता। कुछ नहीं तो कम से कम मजदूरी तो मिलती पर अब.... अब दोबारा जाऊँ या किसी को बताऊँ तो पकड़ा जाऊँगा।
अगले दिन उसे पता चला कि उस परीक्षा में और कोई नहीं मधुकांत का ही बचपन का दोस्त सत्यव्रत सफल हुआ है। मारे जलन के मधुकांत अपने बाल नोचकर रह गया। फिर भी वह अपने दोस्त सत्यव्रत को बधाई देने गया तो वह बोला – ‘‘भाई मेरा तो ख्याल है कि हर आदमी को हर वक्त अपनी ईमानदारी से काम करना चाहिए। ना जाने कब कहाँ कौन किसकी परीक्षा ले रहा हो और परीक्षा में सफल होकर कब किसकी जिन्दगी ही बदल जाए। जैसा कि मेरे साथ हुआ।


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कमल चोपड़ा
1600/114, त्रिनगर,
दिल्ली – 110035.

Friday, May 15, 2009

परिचय:श्याम सुन्दर अग्रवाल



जन्म: 8 फरवरी 1950 को कोट कपूरा (पंजाब) में।
शिक्षा: बी.ए.
लेखन: लघुकथा, बालकथा व कविता (पंजाबी एवं हिंदी में)
प्रकाशित कृतियां:
मौलिक
‘नंगे लोकां दा फिक्र‘ व ‘मारूथल दे वासी’ लघुकथा संग्रह पंजाबी में।
अनुवाद
‘डरे होए लोक’, ‘ठंडी रजाई’(सुकेश साहनी), ‘आखरी सच्च’(डा. सतीश दुबे)
व ‘सिर्फ इंसान’(डा. कमल चोपड़ा) लघुकथाओं का हिंदी से पंजाबी में
अनुवाद। इन के अतिरिक्त हिंदी से पंजाबी व पंजाबी से हिंदी में पाँच सौ से
अधिक रचनाओं का अनुवाद।
संपादन :
•पंजाबी में 23 व हिंदी में 2 लघुकथा संकलनों का संपादन।
•नवसाक्षरों के लिए लोक कथाओं के दो संकलनों का संपादन।
•पंजाबी त्रैमासिक ‘मिन्नी’ का 20 वर्षों से संपादन ।

•••
पंजाब लोक निर्माण से सेवा-निवृत्त
संपर्क: बी-I/575, गली नं. 5, प्रताप सिंह नगर, कोट कपूरा(पंजाब)-151204
दूरभाष: 01635-222517 / 320615 मोबाइल: 09888536437
E.Mail: sundershyam60@gmail.com
•••

नहीं व्यर्थ बहाओ पानी



श्याम सुन्दर अग्रवाल

सदा हमें समझाए नानी,
नहीं व्यर्थ बहाओ पानी ।
हुआ समाप्त अगर धरा से,
मिट जायेगी ये ज़िंदगानी ।
नहीं उगेगा दाना-दुनका,
हो जायेंगे खेत वीरान ।
उपजाऊ जो लगती धरती,
बन जायेगी रेगिस्तान ।
हरी-भरी जहाँ होती धरती,
वहीं आते बादल उपकारी ।
खूब गरजते, खूब चमकते,
और करते वर्षा भारी ।
हरा-भरा रखो इस जग को,
वृक्ष तुम खूब लगाओ ।
पानी है अनमोल रत्न,
तुम एक-एक बूँद बचाओ ।
-0-

E.Mail: sundershyam60@gmail.com

चिड़िया


श्याम सुन्दर अग्रवाल

सुबह-सवेरे आती चिड़िया,
आकर मुझे जगाती चिड़िया ।
ऊपर बैठ मुंडेर पर,
चीं-चीं, चूँ-चूँ गाती चिड़िया ।
जाना है,नहीं स्कूल उसे
न ही दफ्तर जाती चिड़िया ।
फिर भी सदा समय से आती,
आलस नहीं दिखाती चिड़िया ।
थोड़ा सा चुग्गा लेकर भी,
दिन भर पंख फैलाती चिड़िया ।
इससे सेहत ठीक है रखती ,
नहीं दवाई खाती चिड़िया ।
छोटी-सी है फिर भी बच्चो,
बातें कई सिखाती चिड़िया ।
रखो सदा ध्यान समय का,
सबको पाठ पढ़ाती चिड़िया ।
-0-

E.Mail: sundershyam60@gmail.com

चिड़िया और बच्चा


श्याम सुन्दर अग्रवाल


फर-फर करती आई चिड़िया,
चोंच में तिनका लाई चिड़िया।
जगह सुरक्षित उस को रख गई,
नीड़ बनाने में वह लग गई ।
एक-एक तिनका खूब सजाया,
उसने सुंदर नीड़ बनाया ।
बिस्तर जैसे नर्म गदेला,
उसमें अंडा दिया अकेला ।
सेया अंडा तो निकला बच्चा,
बड़ा ही प्यारा, बड़ा ही सच्चा।
चिड़िया चोंच में दाना लाती,
डाल चोंच में उसे खिलाती ।
रोज रात को लोरी गाती,
बड़े प्यार से उसे सुलाती ।
बच्चे से बतियाती चिड़िया,
सब कुछ उसे सिखाती चिड़िया ।
उड़ना सीख वह बड़ा हो गया,
दूर गगन में कहीं खो गया ।
००००००००००००
संपर्क: बी-I/575, गली नं. 5, प्रताप सिंह नगर,
कोट कपूरा(पंजाब)-151204

E.Mail: sundershyam60@gmail.com

मदन का भाई नन्दू


कमल चोपड़ा

मदन बैलगाड़ी चलाता था। क्योंकि उसके पास नन्दू नाम का एक ही बैल था इसलिए उसने अपनी गाड़ी को थोड़ा छोटा और इस तरीके का बनवा लिया था ताकि उसे खींचने में नन्दू को कोई परेशानी न हो।
उस दिन मदन अपनी बैलगाड़ी से सेठ रामरतन के अनाज के कुछ बोरे सूर्यगढ़ की अनाज मंडी पहुंचाने जा रहा था। आधे रास्ते पहुँचकर उस के बैल नन्दू की तबीयत खराब हो गई। मदन अपने बैल नन्दू को अपने भाई जैसा मानता था। नन्दू को गाड़ी खींचने में बहुत मुश्किल हो रही थी। उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। मदन ने उसे रुकने के लिए कहा लेकिन नन्दू किसी तरह धीरे–धीरे चलने की कोशिश करता रहा।
नन्दू को लड़खड़ाता देख मदन ने गुस्से में उसे रुकने के लिए कहा। नन्दू रुक गया।
गाड़ी से उतरकर मदन ने नन्दू को छू कर देखा – अरे तुझे तो बुखार है? और तू है कि .......? मदन ने उसे गाड़ी से खोला और नजदीक के एक पेड़ के नीचे आराम करने को कहा। नजदीक ही एक गाँव था। मदन गाँव से नन्दू के लिये चारा और बाल्टी में पानी ले आया। नन्दू ने थोड़ा सा पानी पिया। थोड़ा सा चारा खाया फिर छोड़ दिया। मदन ने उसे हाथ से सहलाते हुए उसकी हिम्मत बढ़ाई – अरे, कुछ खायेगा पिएगा नहीं तो ठीक कैसे होगा? इतना बलवान हो के बुजदिलों की तरह हिम्मत छोड़ रहा है? हिम्मत रख भाई......
नन्दू बोलता नहीं था लेकिन वह मदन की सब बात समझता था। मदन भी इशारों–इशारों में नन्दू की हर बात समझ लेता था। नन्दू ने आँखों के इशारे से कहा – मुझे अपनी चिन्ता नहीं। मुझे सेठ रामरतन के माल को जल्द से जल्द मंडी पहुँचाने की चिंता है.....
– कोई बात नहीं! जान है तो जहान है! सेठ क्या कर लेगा? ज्यादा से ज्यादा हमारे भाड़े के पैसे काट लेगा या नहीं देगा। देखा जाएगा। तुझे कुछ हो गया तो? तू चिन्ता न कर मैं अभी तेरी दवा–दारू का कुछ प्रबंध करता हूँ।
थोड़ी देर बाद मदन पास के गाँव से एक वैद्य को बुला कर ले आया। वैद्य ने नन्दू को चैक किया फिर अपने झोले से निकाल कर कुछ जड़ी–बूटियाँ नन्दू को खिलाई और पचास रूपये लेकर चलता बना। रात हो गई थी दोनों पेड़ के नीचे लेट गये।
सुबह तक नन्दू की हालत और खराब हो गई थी। उससे उठकर खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था। वहाँ से गुजरने वाले लोग कुछ पल रुकते। नन्दू को देखते और कहते – इसकी हालत तो बहुत खराब है। इसका तो बचना मुश्किल है।
मदन की चिंता बढ़ती जा रही थी। वहाँ से गुजरने वाले एक अन्य व्यक्ति ने मदन को सलाह दी – देसी इलाज -विलाज को छोड़ो। किसी पढ़े–लिखे जानवरों के डाक्टर को दिखाओ। जानवरों के डाक्टर का पता लगाकर मदन उसे बुलाकर ले आया। डाक्टर ने नन्दू का चैक अप किया और कहा – इसे अंतड़ियों का इंफेक्शन हो गया है। जैसे इंसानों के होता है न? ऐसे ही जानवरों को भी इन्फैक्शन हो जाता है। इसे पाँच दिन तक रोज इंजेक्शन लगाने पड़ेंगे। कुछ दव।इयाँ भी देनी पड़ेंगी। मैं लिख देता हूँ। यहाँ से डेढ़ एक मील दूर अगले गाँव में दवाइयों की दुकान है वहाँ से मिल जायेंगी। सात–आठ सौ रुपये की पड़ेंगीं। सौ रुपया रोज का मेरी फीस होगी। इलाज करवाना है तो सोच लो.....?
– डाक्टर साहब, नन्दू ठीक तो हो जायेगा न?
डाक्टर साहब ने पहले मदन की ओर देखा फिर नन्दू की ओर देखा। दोनों की आँखों में आँसू थे। डाक्टर साहब धीरे से बोले – ठीक क्यों नहीं होगा। कोशिश करना हमारा कर्तव्य है। बाकी तो ऊपर वाले की मर्जी पर है। फिलहाल मैं कुछ दवाइयाँ अपने पास से दे देता हूँ। तुम शाम तक मेरी लिखी दवाइयाँ और इंजेक्शन ले आओ। मैं शाम को फिर आऊँगा। कहकर डाक्टर साहब अपनी फीस लेकर चले गये।
मदन नन्दू के पास गया तो नन्दू सिर हिला हिलाकर पूछने लगा – क्यों मेरे लिए इतना परेशान हो रहे हो? मरने दो मुझे। किराये की बैलगाड़ी लेकर माल मंडी में पहुँचा दो। मुझे यहाँ पड़ा रहने दो। वापसी में देख लेना। मैं ठीक हो गया तो ठीक वर्ना.......।
– मैं तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़कर कैसे जा सकता हूँ? बीमार नहीं होते क्या लोग? इलाज से ठीक नहीं होते क्या?
– इतने पैसे कहाँ से लाओगे? इतने तो हम लोग लेकर भी नहीं चले।
– रास्ते में खाने–नहाने के लिए हम जो बाल्टी–बरतन अपने साथ लेकर चलते हैं न, मैं उन्हें बेच दूँगा। तू चिंता मत कर.....
– मेरे लिए इतना....
– क्या इतना? अपनी बार भूल गया? जब मेरे पिता हमारे सिर पर कुछ कर्ज छोड़कर गुजर गये थे और लोगों ने हमारे खेतों पर कब्जा कर लिया था। तब मैं बीमार चल रहा था। कुछ गुण्डे–लठैत हमारी झुग्गी पर भी कब्जा करने आये थे लेकिन तूने जमकर उनका मुकाबला किया था। उनकी लाठियाँ खाईं लेकिन उन्हें झुग्गी पर कब्जा नहीं करने दिया। मेरी जान बचाई। सींग मार- मारकर खदेड़ दिया था तूने? और आज मैं तुझे यों ही छोड़ दूँ? मुसीबतों में हम दोनों साथ रहे हैं और आगे भी रहेंगे! सुन लिया न!
दोनों की आँखों से आँसू बह रहे थे। तभी वहीं आस–पास मँडरा रहे एक आदमी ने मदन को पास बुलाया और कहा – इस बैल के लिए क्यों इतना परेशान हो रहे हो? आखिर ये है तो जानवर ही?
मदन को गुस्सा आ गया – इंसान भी तो जानवर ही है! बल्कि जानवर तो इंसान को अपना दोस्त समझते हैं और इंसान ...... पशुओं का फायदा उठाता है और बाद में उन्हें मार–काटकर के खा जाता है। इंसान जैसा निर्दय और खुदगर्ज तो कोई जानवर होगा ही नहीं!
वह आदमी हँसते हुए बोला – अरे छोड़ो – छोड़ो ये उपदेश की बातें....! और जरा बु​द्धि से काम लो..... इस बीमार बैल को मुझे एक हजार रुपयों में बेच दो और जो पैसे तुम इसके इलाज में खर्च कर रहे हो वे बच जायेंगे। मेरे दिये एक हजार रुपये और इलाज के बचे पैसों को मिलाकर मैं तुम्हें नया बैल खरीदवा देता हूँ। अपना मजे से जहाँ जाना हो जाओ।
मदन ने हैरानी से पूछा – तुम इस बीमार बैल का क्या करोगे? उस आदमी ने हँसते हुए कहा – इसे किसी कसाई को काटने के लिये दे दूँगा और क्या......।
सुनते ही मदन भड़क उठा। उस आदमी को मारने के लिए डंडा लेने अपनी बैलगाड़ी की ओर भागा। वह आदमी मदन को गुस्से में बेकाबू हुआ देखकर भाग खड़ा हुआ। वर्ना मदन इतने गुस्से में था कि उसे जान से ही मार डालता।
अगले पांच दिन तक मदन वहीं खुले में पड़ा रहा और नन्दू की सेवा करता रहा। कभी उसे दवाई खिलाता कभी चारा खिलाता। कभी उसे नहलाता। डाक्टर आता इंजेक्शन लगाता। छठे दिन नन्दू उठकर खड़ा हो गया। नन्दू के स्वस्थ हो जाने पर मदन की खुशी का ठिकाना नहीं था।
स्वस्थ होते ही नन्दू ने मदन को इशारे से कहा – अब जल्दी से चलो यहाँ से चलकर सेठ राम रतन का माल मंडी में पहुँचा दें।
मदन ने हँसते हुए कहा – सेठ रामरतन तो हमें ढूँढ रहा होगा। वो सोच रहा होगा हम दोनों उसका माल लेकर भाग गये हैं!
ज्यों ही मदन अपनी बैलगाड़ी लेकर मंडी की ओर रवाना होने लगा उसने देखा सामने से गाँव के दो तीन प्रतिष्ठित व्यक्ति चले आ रहे हैं। एक आदमी ने आगे आकर कहा – मैं इस गाँव का प्रधान हूं। मैं तुम्हारे साथ अपनी इकलौती लड़की का रिश्ता करना चाहता हूँ। मुझे तुम्हारे जैसे लड़के की ही तलाश थी। तुम्हारे गाँव अपना आदमी भेजकर मैंने तुम्हारे बारे में सब पता लगा लिया है। तुम मेहनती और ईमानदार आदमी हो। जो आदमी पशुओं से इतना प्यार कर सकता है वह मेरी बेटी को कभी धोखा नहीं देगा। तुम मंडी जा रहे हो जाओ। हम एक माह बाद खुद तुम्हारे गाँव रिश्ता लेकर आएँगे।
दोनों खुशी–खुशी मंडी की ओर चल दिये। मंडी पहुँचे तो सेठ राम रतन जैसे उनके स्वागत में ही खड़ा था। वे तो सोच रहे थे कि सेठ उन्हें देखते ही बिगड़ उठेगा और उन्हें बुरा–भला कहेगा लेकिन सेठ ने हँसते हुए कहा – तुम लोग एक सप्ताह देर से पहुँचे। अच्छा किया। तुम लोग पहले पहुँच जाते तो मेरा माल सस्ते में बिक जाता। इस बीच इधर अनाज के भाव बहुत बढ़ गये हैं। अब मैं अपना माल ऊँचे दामों पर बेचूँगा। मुझे दुगुने का फायदा हो गया है। मैं तुम्हें भी इनाम के रूप में दोगुना किराया दूँगा।
मदन ने नन्दू की ओर देखा। दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं था।

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कमल चोपड़ा
1600/114, त्रिनगर,
दिल्ली – 110035.

Wednesday, May 13, 2009

चिन्तन के क्षण

                                      चिन्तन के क्षण

 

प्रसन्न

निराशा भले ही कुछ भी हो़, लेकिन कोई धर्म नहीं है।सदा मुस्कराते हुए प्रसन्न रहकर तुम ईश्वर के समीप पहॅंच सकते हो।क्या खोया , क्या पाया इससे ऊपर उठकर मन को सदा हल्का रखने में एक परम आनन्द है।यह काम किसी भी  प्रार्थ‍ना  से अधिक शक्तिशाली है।

क्षमा

   आत्मप्रशंसा , वैमनस्यभावना  तथा ईर्ष्या का पूर्णतया परित्याग करो।तुम सभी को धरती मॉं की तरह क्षमाशील होना चाहिए।यदि तुममें इस प्रकार की क्षमाशीलता होगी तो संसार तुम्हारे चरणों में झुक जायेगा।क्षमा न करने से जीवन की गति   अवरुद्ध हो जायेगी।

संघर्ष

    पवित्र रहने के लिए संघर्ष करते हुए समाप्त हो जाओ।हजार बार मृत्यु का स्वागत करो।निराश मत होओ।कष्ट के समय में भी धैर्य रखते हुए आशा का पल्ला मत छोड़ो। घबराकर गलत मार्ग पर मत बढ़ो। यदि अमृत प्राप्त नहीं हो सका तो कोई कारण नहीं कि विष ही पी लिया जाये।

पहचान

  प्रशस्त होने का प्रयत्न करो।याद रखो  गति और प्रगति में ही जीवन है।लेकिन जीवन में गति और प्रगति आती हैविनम्रता  , कृतज्ञता और अपने उपकारी के प्रति सच्ची भावना से।अपने कार्य के प्रति निष्ठावान रहते हुए सभी के प्रति उचित सम्मान देना भी सीखो।

संचार

शक्ति और साधन खुद प्राप्त हो जायेंगे। तुम केवल अपने आपको कार्य में रत कर दो और तब तुम्हें ज्ञात होगा कि एक जबरदस्त शक्ति तुम्हारे भीतर आ रही है। दूसरों के प्रति किया गया जरा सा काम भी हमारे भीतर शक्ति का संचार कर देता है। दूसरों के प्रति भलाई के विचार ही हमारी शक्ति के मूल साधन हैं।

                                                                                  

उदारता

          उदारता से बढ़कर कोई गुण नहीं ।नीचतम मनुष्य वह है जो केवल लेने के लिए हाथ बढ़ाता है।वह उच्चतम मनुष्य है जे सदा देता ही रहता है।हाथ देने के लिए ही बनाये गये हैं।भले ही तुम्हारे प्राण निकल रहे हों तो भी अपनी रोटी का अन्तिम टुकड़ा दे दो ,तुरन्त पूर्ण मनुष्य बन जाओगे।एकदम देवता।

प्रयत्न

          असफलताओं के लिए खेद मत करो।वे स्वाभाविक हैं।वे जीवन का सौन्दर्य हैं।इन असफलताओं के बिना जीवन है ही क्या ? यदि जीवन में संघर्ष नहीं है , तो वह जीवन जीने योग्य नहीं। इसलिए एक हजार बार  प्रयत्न करो और यदि एक हजार बार भी असफल रहो तो प्रयत्न और करो। 

उत्पत्ति

          कार्यशीलता एक अच्छा गुण है ; लेकिन उसकी प्राप्ति भी विचारशीलता से होती है।अत: अपने मस्तिष्क को उच्च विचारों और उच्च आदर्शों से परिपूर्ण करो।रातदिन उन्हें अपने सम्मुख रखो और स्मरण करो।फिर उनमें से अपने आप महान कार्यो की उत्पत्ति होगी।

पक्षपात

          पक्षपात को ही सभी बुराइयों की जड़ समझो।पक्षपात दूसरों के मन में अलगाव पैदा कर देता है। अलगाव पैदा होना अच्छी बात नहीं है।इससे व्यक्ति का विश्वास उठ जाता है और वह मान लेता है कि पक्षपात करने वाला अपने चरित्र से गिर गया है।अत: पक्षपात को अपने से दूर रखो तो आपदाएँ भी दूर रहेंगी।

जाग्रति

          उठो और जागो और उस वक्त तक मत रुको जब तक कि मंजिल नही मिल जाती।तुम्हारी मंजिल तुम्हें ही खोजनी है और तुम्हें ही उस तक पहुँचना है।यदि तुम यह मानकर बैठे हो कि कोई आयेगा और तुम्हारा हाथ पकड़कर तुम्हारी मंजिल की तरफ ले जायेगा तो तुम भारी भूल के शिकार हो गये हो।अपनी मंजिल की ओर तुम्हें खुद ही बढ़ना है।

विश्वास

          मैं उस धर्म और भगवान  में विश्वास नहीं रखता जो विधवा के आँसू न पोंछ सके या किसी अनाथ व भूखे तक रोटी का टुकड्रा न ले जा सके।मैं उस धर्म में भी विश्वास नहीं रखता जो किसी को सहारा न दे सके ,किसी डूबते को न बचा सके।धर्म का मूल मंत्र ही यह है कि हम दूसरों के काम आयें।

 

बुद्धिमान

          मृतक वापस नहीं लौटते ।बीती रातें फिर नहीं आतीं ।उतरी हुई लहर फिर नहीं उभरती।मनुष्य फिर से वही शरीर नहीं धारण कर सकता।इसलिए बीती हुई बातों को भूलकर वर्तमान को पूजो।नष्ट और खोई हुई शक्ति अथवा वस्तु का चिन्तन करने की अपेक्षा नये रास्ते पर चलो।जो बुद्धिमान होगा वह इस बात को अवश्य समझेगा।

पुरुषार्थ

                   पुरुषार्थ आलस्य का शत्रु है। आलस्य को हर प्रकार से रोकना चाहिए। पुरुषार्थ करते रहने का अभिप्राय है आलस्य को रोकना सभी बुराइयों को रोकना ;मानसिक व शारीरिक बु्राइयों को रोकना ।और जब तुम ये बुराइयाँ रोकने में सफल हो जाओगे, तो शान्ति और समृ​द्धि स्वयं तुम्हारे पास आ जायेगी।

परिणाम

          प्रत्येक कार्य का परिणाम अच्छाई और बुराई का मिश्रण है।कोई भी अच्छा काम नहीं जिसमें थोडी बहुत बुराई न हो।अग्नि के साथ धुएँ की तरह बुराई भी प्रत्येक कार्य में रहती है।लेकिन हमें अपनेआप को अधिक से अधिक ऐसे कामों में लगाना चाहिये जिनका अच्छा परिणाम अधिक हो और बुरा काम से कम।

विचार

          अपवित्र कल्पना और विचार भी अपवित्र कार्य की तरह बुरे हैं।नियंत्रित इच्छाएँ ही उच्च परिणाम तक पहुँचती हैं।मनुष्य अपवित्र कार्य तभी करता है जब उसके मन में अपवित्र विचार आते हैं।वे अपवित्र विचार उसे बुरे कार्य की ओर घसीट ले जाते हैं।मिर्च खाकर किसका मुँह मीठा हुआ है।

महापाप

          दूसरों की निन्दा करना महापाप है।इससे पूर्णतया बचो।अनेक बातें दिमाग में आती हैं।यदि उन्हें प्रकट करने का  प्रयत्न किया जाये तो राई का पहाड़ बन जाता है।प्रत्येक बात समाप्त हो जाती है यदि तुम चुप हो जाओ व भूल जाओ और क्षमा कर दो।निन्दा की बात पर हमें चुप रहने भूलने और क्षमा करने का गुण अपनाना चाहिए।

सन्तोष

          सुख व्यक्ति के सामने अपने सिर पर दुख का ताज पहनकर आता है।जो सुख का स्वागत करना चाहता है उसे दुख का स्वागत करने के लिए भी सदा तैयार रहना चाहिये।सुख को मात्र सुख मानकर चलने वाला भविष्य में अधिक दुखी भी हो सकता है।अत: ऐसे सुख की कामना करो जो सभी के लिए कल्याणकारी हो।

                                     

साभार: विवेक के आनन्द से

 

प्रस्तुति : चन्द्र देव राम   प्राचार्य  के वि जवाहर नगर(बिहार)