मेरा आँगन

मेरा आँगन

Monday, February 11, 2008

धूप की चादर

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'


घना कुहासा छा जाता है ,
ढकते धरती अम्बर ।
ठण्डी-ठण्डी चलें हवाएँ ,
सैनिक -जैसी तनकर ।
भालू जी के बहुत मज़े हैं-
ओढ़ लिया है कम्बल ।
सर्दी के दिन बीतें कैसे
ठण्डा सारा जंगल ।


खरगोश दुबक एक झाड़ में
काँप रहा था थर-थर ।
ठण्ड बहुत लगती कानों को
मिले कहीं से मफ़लर ।
उतर गया आँगन में सूरज
बिछा धूप की चादर ।
भगा कुहासा पल भर में ही
तनिक न देखा मुड़कर ।

आ भाई सूरज

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'


आ भाई सूरज-
उतर धरा पर
ले आ गाड़ी
भरकर धूप ।
आ भाई सूरज-
बैठ बगल में
तापें हाथ
दमके रूप ।
आ भाई सूरज-
कोहरा अकड़े
तन को जकड़े
थके अलाव ।
आ भाई सूरज
चुपके-चुपके
छोड़ लिहाफ़
अपने गाँव ।
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Saturday, February 9, 2008

चुनमुन

–नवीन चतुर्वेदी

सुबह हो गई,
कोहरे की चादर फिर भी छाई है।
चुनमुन ने
सोते रहने की कसम उठाई है।
अब जब सूरज
उठा रहा है कोहरे की चादर
तब चुनमुन की दादी
उसे उठाने आईं है।

चूहे का सूट

–नवीन चतुर्वेदी

सर्दी पडी बहुत, चूहे ने
अपना सूट सिलाया।
दो कतरन ऊनी कपडे की
चार रेशमी लाया।
दर्जी बोला–‘‘समय नहीं है,
कहीं और तुम जाओ,
और किसी छोटे दर्जी से
अपना सूट सिलाओ।‘‘
अपने पैने दांत दिखा
जब चूहे ने धमकाया
नाप लिया फौरन चूहे का
मन ही मन घबराया।

जाडे का सूरज



–नवीन चतुर्वेदी

जाडे के मारे सूरज ने
ओढ लिया कुहरा।

मुर्गे ने जब बांग लगाई
सूरज बन गया बहरा।

आठ बजे के बाद दिखाया
उसने अपना चेहरा ।

और शाम के छह बजते ही
भागा, फिर ना ठहरा।