Tuesday, May 5, 2020
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Sunday, May 3, 2020
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3-सर्कस
Monday, July 15, 2013
Wednesday, April 11, 2012
अन्तर समझिएगा
किसी भी शब्द में दो स्वर एक साथ नहीं जुड़ते । हिन्दी के प्रकाशक भी इन गलतियों के लिए जिम्मेदार हैं ।
Wednesday, February 15, 2012
मेरी मुनिया
इन हाइकु को देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ-
सितार बजा गई
सूने घर में ।
2
धूप -सी हँसी
आँगन में उतरी
सहला गई ।
Thursday, December 15, 2011
Sunday, May 16, 2010
मैं हूँ आलू का पापड़
मैं हूँ आलू का पापड़
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
मैं हूँ आलू का पापड़। मैं छोटे-छोटे बीज के रूप में था। किसान ने खेत की जुताई करके मुझे जमीन में दबा दिया। मेरा दम घुटने लगा। मुझे लगा मेरे प्राण पखेरू उड़ जाएँगे। किसान ने सिंचाई की। मुझसे अंकुर निकलने लगे और ऊपर की कोमल जमीन को चीरकर खुली हवा में साँस लेने का मौका मिला। ठण्ड पड़ने लगी। लगा कि मेरे पत्ते सूख जाएँगे। किसान ने सिंचाई करके मुझे सूखने से बचाया। कुछ कीट-पंतगों ने भी मेरे स्वास्थ्य को खराब करने का बीड़ा उठाया। मेरा मालिक बहुत होशियार था। उसने कीटनाशक छिड़ककर मुझे होने वाली बीमारियों से छुटकारा दिला दिया। मैं धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। जमीन के भीतर मेरा आकार बढ़ने लगा।
किसान ने खुदाई करके मुझे बाहर निकाल लिया। बाहर का संसार बहुत सुन्दर था। एक दिन एक हलवाई मुझे खरीदकर ले गया। उसने पहले मुझे बड़े-बड़े भगौनों में उबाला। फिर मेरा छिलका बड़ी बेरहमी से उतारा। मेरी आँखों में इस हलवाई ने नमक-मिर्च झोंक दीं, मसाला भी मिला दिया। मुझे बुरी तरह कुचलकर बेलन से बेला और पापड़ बनाए। वह मुझे इतनी जल्दी छोड़ने वाला नहीं था। उसने मुझे तेज धूप में डाल दिया। मैं रो भी नहीं सकता था। इसके बाद उसने मुझे खौलते तेल में डालकर तला। आलू से पापड़ बनने की यह मेरी कष्टकारी यात्रा थी। अब आपकी प्लेट में सजाया गया हूँ ।
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Monday, May 10, 2010
हरियाली ने बौर सजाया
Friday, April 23, 2010
विश्व पुस्तक -दिवस के अवसर पर विशेष


धनेश के बच्चे ने उड़ना सीखा
लेखक: दिलीप कुमार बरूआ ,अनुवाद : पंकज चतुर्वेदी ,चित्रांकन:पार्थ सेनगुप्ता
खरगोश और कछुए की दौड़
लेखक: किरण तामूली ,अनुवाद : पंकज चतुर्वेदी ,चित्रांकन:समरज्योति दास
प्रथम संस्करण: 2010 , मूल्य : 16 रुपये , पृष्ट :20 (आवरण सहित)
प्रकाशक: नेशनल बुक ट्रस्ट ,इण्डिया , नेहरू भवन ,5 इंस्टीट्यूशनल एर्या फेज़-दो , वसन्तकुंज , नई दिल्ली-110070
धनेश के बच्चे ने उड़ना सीखा में धनेश ( कठफोड़वा)पक्षी की जीवन शैली को कहानी के माध्यम से प्रस्तुत किया है । अण्डे देने के समय किस प्रकार धनेश बीट से मादा के आवास को सुरक्षित कर देता है, यह जानकारी बहुत रोचक है । साथ ही अण्डे देने और उन्हें सेने के समय नर धनेश किस निष्ठा से मादा के पोषण ध्यान रखता है, सचमुच बहुत महत्त्वपूर्ण है ।
खरगोश और कछुए की दौड़ पुस्तक में पुरानी कहानी को नए सन्दर्भों में प्रस्तुत किया गया है । दौड़ में फिर कछुआ ही जीतता है । अधिक खाने के कारण खरगोश हार जाता है । औसे अवसर पर अन्य जंगली जानवरों की उपस्थिति कथा को और अधिक रोचक बना देती है ।
पुस्तकें सजीव एवं उत्कृष्ट चित्रों से सुसज्जित है । चित्रांकन कथा को सरस बनाने और छोटे बच्चों का मन मोहने में हर दृष्टि से सक्षम हैं । पंकज जी के अनुवाद में मूल जैसा कथा-प्रवाह दृष्टिगोचर होता है।
इन दोनों पुस्तकों की पाण्डुलिपियाँ असमिया बाल पत्रिका “मौचक” के सहयोग से जोरहाट में आयोजित कार्यशाला में तैयार की गई थीं ।
-प्रस्तुति- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Sunday, April 18, 2010
हरियाली और पानी


Sunday, December 20, 2009
पानी

Saturday, August 15, 2009
जागरूक भारत
चुनाव के समय इनका असली प्रकोप देखा जा सकता है । अच्छे लोकतन्त्र के लिए ये सबसे बड़ा खतरा हैं । इनका सहारा लेकर जब तक वोट माँगने का सिलसिला बरकरार रहेगा ; तब तक ये राष्ट्र को कुतरते रहेंगे । इस अवसर पर जैसे भी जीत मिले ; उसी तरह के हथकण्डे अपनाए जाते हैं ।
आर्थिक शक्तियाँ कुछ लोगों तक सीमित होती जा रही हैं ।भ्रष्टाचार शिष्टाचार का स्थान लेता जा रहा है । शिक्षा समर्पित लोगों के हाथ में न होकर व्यापारियों के हाथ में चली गई है ।यह ख़तरा देश का सबसे बड़ा ख़तरा है । भू माफिया की तरह शिक्षा माफिया का उदय इस सदी की सबसे बड़ी विडम्बना और अभिशाप हैं । भारत की बौद्धिक सम्पदा का एक बड़ा भाग उच्च शिक्षा से निकट भविष्य में वंचित होने वाला है । इसका कारण बनेंगी लूट का खेल खेलनेवाली धनपिपासु शिक्षा संस्थाएँ; जहाँ शिक्षा दिलाने की औक़ात भारत के ईमानदार 'ए' श्रेणी के अधिकारी के बूते से भी बाहर हो रही है । सामान्यजन किस खेत की मूली है ।
एक वर्ग वह है जो सरकार की तमाम कल्याणकारी योजनाओं को अपनी तिकड़म से पलीता लगाने में माहिर है । वह सारी सुविधाओं को आवारा साँड की तरह चर जाता है । तटस्थ रहकर काम नहीं चल सकता । हमें समय रहते चेतना होगा; अन्यथा हम भी बराबर के कसूरवार होंगे । समृद्ध भारत के लिए हमें सबसे पहले जागरूक भारत बनाना होगा । सोया हुआ उदासीन भारत सब प्रकार की कमज़ोरियों का कारण न बने ; हमें यह प्रयास करना होगा । हमें आन्तरिक षड़यन्त्रों पर काबू पाना होगा; तभी हम देश के बाहरी दुश्मनों का मुकाबला कर सकते हैं । हम यह बात गाँठ बाँध लें कि कोई देश किसी का सगा नहीं होता , सगा होता है उनका राष्ट्रीय हित । हम राष्ट्रीय हितों की बलि देकर सम्बन्ध बनाएँगे तो धोखा खाएँगे, जैसा अतीत में खाते रहे हैं ।
15 अगस्त 09
Thursday, June 18, 2009
महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ
ड्रीम 2007
एक अंक : 5 रुपए
सम्पादक :डॉ वी बी
विपनेट संवाद[ VIPNET NEWS ]
मूल्य :दो रुपए
सम्पादक : बी के त्यागी
सहायक सम्पादक : निमिष कपूरइस संवाद पत्रिका में विज्ञान क्लब के समाचार और गतिविधियों की जानकारी रहती है ।इस समाचार पत्रिका में हिन्दी और अंग्रेजी में महत्त्वपूर्ण लेख एवं रोचक पहेलियाँ भी रहती हैं। विद्यालयों को भारत सरकार के इस पवित्र कार्य से ज़रूर जुड़ना चाहिए ।
पत्रिकाओं के मिलने का पता:-
विज्ञान प्रसार,सी-24 , कुतुब इंस्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110016
Vigyan Prasar ,C-24, Qutub Institutional Area New Delhi 11001600000000000000000000000000000
प्रस्तुति-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Friday, November 9, 2007
तनाव के त्रिभुज में घिरे बच्चे
आज का दौर तरह-तरह के तनाव को जन्म देने वाला है ,घर-परिवार ,कार्यालय ,सामाजिक परिवेश का वातावरण निरन्तर जटिल एवं तनावपूर्ण होता जा रहा है ,इसका सबसे पहले शिकार बनते हैं निरीह बच्चे ।घर हो या स्कूल , बच्चे, समझ ही नहीं पाते कि आखिरकार उन्हें माता-पिता या शिक्षकों के मानसिक तनाव का दण्ड क्यों भुगतना पड़ता है। घर में अपने पति /पत्नी या बच्चों से परेशान शिक्षक अपने छात्रों पर गुस्सा निकालकर पूरे वातावरण को असहज एवं दूषित कर देते हैं। विद्यालय से लौटकर घर जाने पर फिर घर को भी नरक में तब्दील करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते ।यह प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण छात्रों के मन पर गहरा घाव छोड़ जाता है । कोरे ज्ञान की तलवार बच्चों को काट सकती है ,उन्हें संवेदनशील इंसान नहीं बना सकती है ।शिक्षक की नौकरी किसी जुझारू पुलिसवाले की नौकरी नहीं है,जिसे डाकू या चोरों से दो-चार होना पड़ता है ।शिक्षक का व्यवसाय बहुत ज़िम्मेदार, संवेदनशील ,सहज जीवन जीने वाले व्यक्ति का कार्य है ; मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति का कार्य- क्षेत्र नहीं है । आज नहीं तो कल ऐसे दायित्वहीन,असंवेदनशील लोगों को इस क्षेत्र से हटना पड़ेगा या हटाना पड़ेगा।प्रशासन को भी यह देखना होगा कि कहीं इस तनाव के निर्माण में उसकी कोई भूमिका तो नहीं है ?
छात्रों पर बढ़ता निरन्तर पढ़ाई का दबाव ,अच्छा परीक्षा-परिणाम देने की गलाकाट प्रतियोगिता कहीं उनका बचपन ,उनका सहज जीवन तो नहीं छीन ले रही है ?घर,विद्यालय ,कोचिंग सैण्टर सब मिलकर एक दमघोंटू वातावरण का सर्जन कर रहे हैं । बच्चे मशीन नहीं हैं ।बच्चे चिड़ियों की तरह चहकना क्यों भूल गए हैं? खुलकर खिलखिलाना क्यों छोड़ चुके हैं ?माता-पिता या शिक्षकों से क्यों दूर होते जा रहे हैं ? उनसे अपने मन की बात क्यों नही कहते ? यह दूरी निरन्तर क्यों बढ़ती जा रही है ?अपनापन बेगानेपन में क्यों बदलता जा रहा है? यह यक्ष –प्रश्न हम सबके सामने खड़ा है। हमें इसका उत्तर तुरन्त खोजना है ।मानसिक रूप से बीमार लोगों को शिक्षा क्षेत्र से दूर करना है ।मानसिक सुरक्षा का अभाव नन्हें-मुन्नों के अनेक कष्टों एवं उपेक्षा का कारण बनता जा रहा है ।क्रूर और मानसिक रोगियों के लिए शिक्षा का क्षेत्र नहीं है ।जिनके पास हज़ारों माओं का हृदय नहीं है ,वे शिक्षा के क्षेत्र को केवल दूषित कर सकते हैं ,बच्चों को प्रताड़ित करके उनके मन में शिक्षा के प्रति केवल अरुचि ही पैदा कर सकते हैं।हम सब मिलकर इसका सकारात्मक समाधान खोजने के लिए तैयार हो जाएँ ।