मेरा आँगन

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Tuesday, October 20, 2015

दादी


मंजूषा मन

छोड़ अपना गाँव पीपल की छाँव।
दादी ने रखा था  शहर में पाँव।

भाई नहीं उनको  यहाँ की हवा
चल ही न पाई ये जीवन की नाव।

ना दिखी थी धरती ना आसमान
जँची न किसी तरह  उनको ये ठाँव।

पौधे  ना थे न फूलों की बगिया
चिड़िया की चूँ चूँ न कौए की काँव।

समझ आ गया मुझे दादी का दुख
लो चलते  हैं अब हम फिर से गाँव।

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16 comments:

नीलाम्बरा.com said...

Sundar

Pracheen va aadhunik jivan shaili ki tulna

sunita pahuja said...

कड़वा सच मंजूषा जी, सुंदर अभिव्यक्ति!

Pushpa mehra said...

दादी के माध्यम से ग्रामीण और शहरी जीवन का अंतर बताती कविता बहुत सुंदर है , मञ्जूषा जी
बधाई
पुष्पा मेहरा

Sudershan Ratnakar said...

मँजुषाजी बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना बधाई।

Anita Manda said...

बहुत अच्छी कविता

Dr.Bhawna Kunwar said...

bahut payari rachna hai mujhe bhi meri daadi ki yaad dila gayi...

Dr.Purnima Rai said...

दादा दादी तो अब किस्से कहानियों में रह गये।
प्रेरक भाव। हम सब मिलकर बुजुर्गों की भावनाओं की कद्र करें।।

sushila said...

सहज-सरल सी मन को छूती रचना । बधाई मंजूषा जी !

Krishna said...

बीती बातें याद दिलाती बहुत सुन्दर रचना मंजूषा जी।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-10-2015) को "क्या रावण सचमुच मे मर गया" (चर्चा अंक-2139) (चर्चा अंक-2136) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Jyotsana pradeep said...

kadve sach par pyaari kavita !badhai manjusha ji !

प्रियंका गुप्ता said...

जाने क्यों दादी के लिए लिखी यह कविता नैन भिगो गयी...| दिल से बधाई स्वीकार करिए...|

कविता रावत said...

अपना गांव अपना छाँव

प्रभात said...

प्यारी सी कविता ............

मेरा साहित्य said...

bahut sunder bhavpurn kavita
badhai
rachana

ज्योति-कलश said...

बहुत सच्ची कविता ...सच में नहीं भाता उन्हें शहरी जीवन !
बधाई मंजूषा जी !