समीक्षा
प्रियंका गुप्ता
कुकडू-कूँ: रामेश्वर काम्बोज ‘हिमाशु’, प्रकाशक : विकास पेपर
बैक / 221, मेन रोड, गांधीनगर, दिल्ली-110031, द्वितीय संस्करण:2003, मूल्य : बीस रुपये,
पृष्ठ :32,ISBN:81-88124-42-7
बच्चों
के सरस-कोमल मन को अगर सहजता से कोई बात बतानी-सिखानी हो या उनके मन की बात दुनिया
के सामने लानी हो तो छोटी-छोटी मनभावन कविताओं से अधिक उत्तम साधन कोई और नहीं
होता । अपनी गेयता के कारण ये स्वयम बच्चों की जुबान पर भी बेहद आसानी से चढ़ जाती
हैं ।
वैसे
तो हर माता-पिता अपने बच्चों को बहुत अच्छे से समझता है, पर मेरा मानना है कि एक बच्चे के मन को जितनी अच्छी तरह से एक
शिक्षक समझ सकता है, उतना और कोई नहीं । इसका प्रमाण श्री काम्बोज जी द्वारा रचित
इन मनोहारी पंक्तियों में खुद ही मिल जाता है । काम्बोज जी स्वयं एक शिक्षक रहे
हैं और देखिए, बस्ते का बोझ कम हो जाए, हर बच्चे की ऐसी इच्छा को कितने अच्छे से
इन्होने समझा है- भारी बस्ता- शीर्षक कविता की इन पंक्तियों में-
माँ मुझसे यह नहीं उठेगा
बस्ता इतना भारी।
इस बस्ते के आगे मेरी
हिम्मत बिल्कुल हारी
बोझ करा दो कुछ कम इसका
सुन लो बात हमारी ।
काम्बोज
जी की बाल-कविताओं में एक सब से बड़ी खासियत मुझे यह भी दिखी कि एक तरफ तो इनमे
बच्चों के मन की झलक दिखती है, वहीं हर कविता में बड़ों के लिए भी कोई-न-कोई सन्देश मौजूद है, बस आवश्यकता है तो उस सन्देश
को समझ कर अपने आसपास की दुनिया में एक सकारात्मक बदलाव लाने की...।
‘मेरी
नानी’ में बच्चा वही पुरानी परियों की कहानी सुनना चाहता है, पर अगर सोचिए तो क्या
आजकल के इस कम्प्यूटरीकृत समय में एकल परिवारों के अकेलेपन से जूझते बच्चे के पास
कहानी सुनाने को कोई नानी हैं भी ?
‘पत्ता’
शीर्षक कविता में बेचारा पत्ता घूमने के शौक में डाल से टूटकर कलकत्ता तो जा
पहुँचता है, पर
वहाँ के धूल-धुएँ से घबराकर वापस अपनी बगिया के मनोरम वातावरण में भाग आता है ।
दादा-दादी
तो हर बच्चे को प्यारे होते हैं, इसलिए उनका हरेक अंदाज़ बच्चों को भाता है ।
‘दादाजी’ शीर्षक कविता में दादाजी तड़के जागकर न केवल अच्छी सेहत के लिए टहल भी आते
हैं, बल्कि वे अपनी बातों से सबके मन में जोश भी भरते हैं ।
दादाजी
कविता में जहाँ दादाजी सबसे न्यारे हैं, वहीं ‘रोमा’ में चार शैतान पिल्ले हैं, जो बेचारे भौंकने भर के लिए
अपनी माँ रोमा से डाँट खा जाते हैं।‘रोमा’ नाम की कुतिया
सचमुच काम्बोज जी के घर की पहरेदार थी। दिनभर स्कूल में रहती थी और स्कूल के बाद घर पर। भूकम्प आने पर इसने
रात में भौंक-भौंककर पूरे परिवार को जगा दिया था। ज़रा देखिए तो-
रोमा घर की पहरेदार
साथ में उसके पिल्ले चार।
चारों पिल्ले हैं शैतान
इधर-उधर हैं दौड़ लगाते
बिना बात भौंकते हैं जब
डाँट बहुत रोमा की खाते।
‘चाचा
जी का बन्दर’ में चंद पंक्तियों में ही काम्बोज जी एक बंदर की हरकतें बहुत
दृश्यात्मक रूप से प्रस्तुत की हैं । शीशा देख के बन्दर का मुँह बनाना और खों-खों
करने और पेड़ों से फल तोड़ना आदि वे बातें हैं , जिनसे कोई भी बच्चा बहुत अच्छे से
परिचित होता है और इस कविता को पढ़कर उसे उतना ही आनंद आएगा,
जितना किसी बन्दर को अपनी आँखों के सामने उछल-कूद मचाते देखकर होता है ।
‘तारे’
और ‘तितली रानी’ कविताएँ , जहाँ बहुत सहजता से बच्चों को प्रकृति से जोड़ती हैं,
वहीं ‘नन्ही चींटी’ और ‘मुर्गा बोला’ कविताएँ बालमन को रोज़ सवेरे जल्दी उठने और
मेहनत करने की सीख खेल-खेल में दे जाने में बिल्कुल सार्थक साबित होते हैं ।
काम्बोज
जी की बाल कविताएँ अपने कलेवर में भले छोटी हैं, पर बच्चों में संस्कार डालने के
लिए बहुत लम्बे-चौड़े व्याख्यान की आवश्यकता नहीं, इस बात को बहुत अच्छे से सिद्ध
करती हैं । उदहारण के तौर पर देखिए कविता- माता-पिता -
माता-पिता बहुत ही अच्छे
जीभर करते हमको प्यार ।
सुबह जागकर सबसे पहले
उन्हें करते हम नमस्कार ॥
‘बापू’
और ‘तिरंगा’ शीर्षक कविताएँ कितनी खूबी से नन्हे दिलों में जीवन भर के लिए देशभक्ति
का पाठ पढ़ा जाती है, ये बात निश्चित ही क़ाबिल-ए-तारीफ़ है । सिर्फ बच्चे ही क्यों,
‘तिरंगा’ की ये पंक्तियाँ अगर बड़े भी पढ़ेंगे तो निश्चय ही एक ओज से भरा हुआ महसूस करेंगे । आप स्वयं
पढ़ कर अनुभव कीजिए-
सदा तिरंगा झण्डा प्यारा
ऊँचा इसे उठाएँगे हम ।
चाहे जान हमारी जाए
इसको नहीं झुकाएँगे हम ।
‘माली’ और ‘मोर’ शीर्षक कविताएँ प्रकृति की एक
मनमोहक झलक बेहद सहज रूप से प्रस्तुत करके बच्चों के मन को हर्षा जाती हैं ।
काम्बोज
जी ने एक कविता लिखी- मेढक जी- इसे पढ़कर तो बच्चो और बड़ों दोनों को समान रूप से
मज़ा आ जाएगा । जब मेढक जी बरसात में छाता लेकर निकलें और उसके बाद भी भीग जाएँ, तो बुखार आना तो लाजिमी है न...और फिर कछुआ
डॉक्टर साहब तो सुई लगाएँगे ही...और वह भी एक नहीं, चार-चार...। बाप रे ! अब भला किसकी हिम्मत होगी ,जो बारिश में भीगकर बीमार पड़ेगा । ज़रा आप खुद ये मज़ेदार कविता पढ़कर देखिए, आप इसके बाद भीगना चाहेंगे क्या ?
छाता लेकर मेढक निकले
जैसे अपने घर से।
गरज-गरजकर, घुमड़-घुमड़कर
बादल जमकर बरसे ।
भीगे सारे कपड़े उसके
हो गया तेज़ बुखार ।
कछुए ने दे दी दवाई
और लगे
इंजेक्शन चार ।
एक तरफ
ये मेढक जी हैं ,तो दूसरी ओर ‘मोटूराम’ भी हैं । अब अगर सड़क पर कोई मोटूराम की तरह गड़बड़
ढंग से चलेगा, तो फिर गिरकर चोट तो खाएगा ही ।
कभी इधर तो कभी उधर को
चलते जाते मोटूराम ।
मोटर वाला भी चकराया
कहाँ जा रहे मोटूराम ।
बीच सड़क में घबरा करके
गिरे अचानक मोटूराम ।
चोट लगी घुटनों पर भारी
उठते कैसे मोटूराम ।
‘सवाल’
कविता में जो सवाल किए गए हैं, उनसे बच्चे खुद को बहुत अच्छे से रिलेट कर सकते हैं
; क्योंकि कभी न कभी हर बच्चे
के मन में ये सवाल तो उठते तो हैं ही ।
‘तोता’
पढ़कर अपने घर के मिट्ठू की याद आ जाती है, और ‘फल’ कविता पढ़कर शायद हर बच्चा बिना
ना-नुकुर करके फलों को खाना शुरू कर देगा ।
कुछ
कविताएँ थोड़े और बड़े
बच्चों के लिए है, पर फिर भी इतने सहज-सरल शब्दों में कि हर उम्र के बच्चे को
नि:संदेह आनंद आएगा ।
बालपन के
एक पड़ाव पर हम में से हर किसी ने रेलगाड़ी का डिब्बा या इंजन बनने का मज़ा तो ज़रूर
उठाया होगा । उसी सुख का अनुभव ‘रेल चली’ कविता को पढने-गुनने वाला हर बालमन करेगा।
इसी तरह सड़क पर अचानक गुज़रते किसी हाथी को देखना बेहद रोमांचकारी लगता है । ‘हाथी
दादा’ कविता उसी अनुभव को एक बार फिर अपनी मन की आँखों से देखने का मौक़ा देती है ।
‘प्यारे
बादल’ और ‘बादल’ समान-से शीर्षक वाली कविताएँ भले हों, पर दोनों का वर्णन एक-दूसरे
से नितांत भिन्न है ।
आप
स्वयं देख लीजिए-
बादल
झूम-झूमकर हाथी जैसे आसमान में छाए बादल ।
बरसा पानी चलीं हवाएँ,भारी ऊधम मचाएँ बादल ।।
तड़तड़-तड़तड़ बिजली चमकी,कैसा डर फैलाएँ बादल ।
धूप खिली तो आसमान में,इन्द्रधनुष चमकाएँ बादल ॥
-0-
प्यारे
बादल
बिखर गये हैं रूई जैसे, नन्हें –मुन्ने प्यारे बादल ।
खरगोशों की तरह कुदकते, आसमान में न्यारे बादल ।
ठण्डी-ठण्डी चलीं हवाएँ,जब है बादल शोर मचाता ।
पंख खोलकर रंग-बिरंगे, तभी मोर भी नाच दिखाता।
इसी से
मिलता-जुलता विषय है-सावन । काम्बोज जी ने ‘सावन आया’ शीर्षक कविता में इस मनोहारी
ऋतु का उतना ही सुन्दर चित्रण कर दिया है । सावन में झूले पड़ना, मोर का नाचना और
सबका मन प्रसन्नता से खिल जाने जैसी प्यारी भावनाओं से ओतप्रोत ये कविता नि:संदेह पढने
के साथ मन-मयूर को नाचने पर मजबूर कर देती है ।
कुल
मिला कर इन समस्त भागों में जो कविताएँ प्रस्तुत की गई हैं, वे सब एक से बढ़कर एक हैं और
हरेक कविता उस उम्र के बच्चों के मनोभाव के पूरी तौर से अनुकूल होने के कारण
बार-बार पढ़ने योग्य है । चित्रों ने कविताओं के सौन्दर्य में और वृद्धि की है।
-0-
11 comments:
कुकड़ू कूँ... बहुत आकर्षक नाम से छपी पुस्तक की खूबसूरत समीक्षा से पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा सहज ही होने लगी। उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत की गई पँक्तियाँ मनभावन हैं। समीक्षाकार ने सुंदर शब्दों में भाव के साथ पुस्तक को शब्द दिए हैं। हार्दिक बधाई आदरणीय लेखक काम्बोज जी एवं प्रियंका गुप्ता जी को।
बाल मन की भावनाओं को बड़े ही सुंदर तरीके से आद.काम्बोज जी शब्दांकित किया है , इसके लिए बहुत जरूरी है कि दिल में एक बच्चा हो - बधाई । उतने ही खूबसूरती से प्रियंका गुप्ता जी ने इन रचनाओं के मर्म को समझा और समीक्षा लिखी ।
मेरी शुभकामनाएं ।
आप दोनों की उत्साहवर्द्धक टिप्पणी के लिए बहुत शुक्रिया...|
आदरणीय काम्बोज जी का बहुत आभार जिन्होंने मेरे दिल से निकले शब्दों को यहाँ स्थान देने योग्य समझा |
कुकडू -कूँ पुस्तक बरसों पहले पढ़ी थी।मेरे परिवार की दो पीढ़ियों ने इन कविताओं को पढ़ा और गुना है। यह काम्बोज जी की कविताओं का जादू है।
प्रियंका गुप्ता जी ने बड़े मनोयोग से बहुत सुंदर समीक्षा लिखी है । हार्दिक बधाई ।
कुकड़ू कूँ की समीक्षा पढ़ लगा इतनी सहजता प्राप्त करने में कितनी तपस्या लगती होगी। प्रभावी समीक्षा व कविताएं।
बधाई
इतनी सुन्दर समीक्षा है,तो पुस्तक कितनी प्यारी होगी ।उदाहरण पढ़कर ही सहज अनुमान हो जाता है ।बधाई आप दोनों को ।
आदरणीय भाई साहब की मनभावन कवितायेँ, और उतनी ही सुंदर और विस्तृत समीक्षा प्रियंका जी आप की भी!आप दोनों को बधाई!!
'कुकडू कूँ' की समीक्षा पढ़कर एक बार पुनः बालमन को महसूस करने का सुअवसर मिला। समीक्षा सुंदर और मनभावन लगी। बहुत पहले इस संग्रह की गई समीक्षा का पुनरस्मरण हो आया। दिन कितना तेजी से गतिमान है।
प्यारी-प्यारी बाल रचनाओं की बहुत सुंदर समीक्षा लिखी है प्रियंका जी। आपको तथा भाई काम्बोज जी को बहुत-बहुत बधाई।
'कुकडू-कूँ' शीर्षक से ही पुस्तक मन को लुभाता है. सिर्फ बच्चों को ही नहीं हम जैसे बड़ों को भी आकर्षित करता है. बड़ी प्यारी प्यारी रचनाएँ है इसमें. काम्बोज भाई को इस सुन्दर पुस्तक के लिए बधाई.
प्रियंका जी ने इसकी इतनी सुन्दर की है कि पढ़कर मन प्रफ्फुलित हो गया. बहुत बधाई प्रियंका जी.
कुकड़ूं कूं " शीर्षक बच्चों को आकर्षित करने वाला है ।प्रियंका जी ने बहुत सुन्दर पुस्तक - समीक्षा की है । छोटे बालकों के लिए सुन्दर कलेवर की कविताएं । बधाई हिमांशु भाई और प्रियंका जी को ।
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