मेरा आँगन

मेरा आँगन
Showing posts with label पुस्तक समीक्षा. Show all posts
Showing posts with label पुस्तक समीक्षा. Show all posts

Monday, May 18, 2015

प्रकाश मनु के बाल साहित्य पर एक दृष्टि

      


डॉआरती स्मित

  विद्वानों ने सच ही कहा है-पुस्तकें मित्र होती हैं,सच्ची मित्र। हर एक की,हर उम्र, हर प्रांत, हर धर्म- संप्रदाय के लोगों की सहचरी। सच्ची मित्र मैंने इसलिए कहा क्योंकि साहित्य बाल-सखा की तरह हमें खींचकर,घसीटकर भी सही राह चलाने के लिए विवश करता ही है... हमारे कानों में कहता है --- मैं हूँ न तुम्हारे साथ ... तुम्हारी कल्पना और यथार्थ का हमजोली ।और सचमुच पुस्तक के रूप में मित्र पाकर हम आनंद और पूर्णता के एहसास से भर उठते हैं । मैंने देखा है रंग-बिरंगे चित्रों से भारी पुस्तक के प्रति शिशु का आकर्षण यहीं से शुरू हो जाती है मित्रता; यहीं से शुरू होता है व्यक्तित्व गठन और इसमें बाल साहित्य महती भूमिका निभाता है
    वरिष्ठ कथाकार श्री प्रकाश मनु बच्चों के भी सुपरिचित कथाकार हैं, जिनकी कहानियाँ बाल मन को गुदगुदाती तो कभी कुछ सिखाती, नई दिशा देती चलती है। बच्चों के लिए की जानेवाली रचना, चाहे वह किसी विधा में हो, स्वयम् को उस अवस्था में पहुंचाए बिना नहीं लिखी जा सकती और बाल साहित्य वही रच सकता है जिसने अपने अंदर पलते बच्चे को सदैव जीवंत रखा हो ... वही भोलापन, वही मासूमियत ,वही निर्दोषता ॥ तभी शब्द अपने अबोध मन के साथ कागज पर उतर पाते हैं और तितली बनकर पंख फड़फड़ाते हैं। इस पुस्तक में कुल दस कहानियाँ हैं ।सभी अपनी-अपनी छटाएँ बिखेरती हुईं ।बालसुलभ मन और कर्म के साथ साथ उन्हें सीख देने की नई कोशिश इनकी कुछ कहानियों में झलकती है। इनमें मास्टरजी, दोस्ती का हाथ, जमुना दादी, अहा रसगुल्ले, झटपट सिंह और मिठाईलाल का नाम लिया जा सकता है।लेखक ने बच्चों की शरारतों के लिए कहीं भी दंड का प्रावधान नहीं रखा। बच्चे हैं शरारते करेंगे ही; संवेदनशील हैं,अपराध-बोध से भरेंगे भी, किन्तु यहाँ बड़ों का फर्ज़ क्या है? वे बच्चों को गलतियों के लिए दंडित करें, उन्हें फटकारें, तिरस्कृत करें.... हमजोलियों या सगे-संबंधियों के सामने उन्हें लज्जित करें या उनकी बाल-सुलभ गलतियों या गलत दिशा में बढ़े उनके कदमों को रोकने के लिए मूल कारणों की तह में जाकर उनका निदान करें॥ वह भी स्नेह के साथ। बाल मनोविज्ञान भी यही कहता है कि बच्चों के व्यवहार का प्रतिकार ना करें।बच्चों की भावना समझने के लिए उस स्तर तक उतरें फिर देखें कि उनके व्यक्तित्व को कैसे और कितना निखारा जा सकता है। प्रकाश मनु की कहानियाँ साबित करती हैं कि वे बाल-मन में पैठकर रचना करते हैं मैंने एक बात जो महसूस की ...जिसकी वर्तमान समाज में ज़रूरत भी है .... वह है, बच्चों के प्रति हम वयस्कों के व्यवहार की रूपरेखा ।प्रकाशजी के प्राय: सभी वयस्क पात्र क्षमाशील,धैर्यवान और मार्गदर्शक हैं। उनकी संवेदना बच्चों को स्पर्श करती है,स्नेहिल व्यवहार बच्चों को अच्छा बनने और बना रहने पर विवश करता है, फिर वह वयस्क पात्र मास्टरजी हो,जमुना दादी हो,मिठाई के शौकीन बिरजू की माँ हो या रसगुल्ले के शौकीन ननकू की माँ ।लेखक ने यहीं गुण दोस्ती के मुख्य पात्र अनुराग में भी आरोपित किए हैं।
            मास्टरजीकहानी कुछ पंक्तियाँ देखें:
प्रशांत:  मास्टरजी, मेरे मन में तो अंधेरा था। आपने दीया जला दिया।अब तो सब ओर प्रकाश ही प्रकाश है।
मास्टरजी : अंधेरा भी तुम्हारे भीतर ही था और प्रकाश भी तुम्हारे भीतर से फूटा है ।अपने गाइड तुम खुद हो प्रशांत।
    प्रशांत के भीतर-बाहर जो उजाला फूट पड़ा था ,वह तो कभी खत्म हो ही नहीं सकता था ।आज उसने सचमुच मन के दीए जलाए थे।शायद इसलिए मास्टर अयोध्या बाबू के घर से लौटते हुए भी उसे लग रहा था ,जैसे वे उसके साथ-साथ चल रहे हैं।
      ये पंक्तियाँ वयस्क-व्यवहार को तय करती हैं ।बाल-मन का अपने माता-पिता, अभिभावक, मित्र व गुरुजन के व्यवहार के प्रति आश्वस्त होना उन्हें निश्चिंतता का भाव-बोध देता है,वे स्वयम् को अकेला महसूस नहीं कराते...विशेषकर जब माता-पिता दोनों नौकरीपेशा  हो .... इसी प्रकार अन्य कहानियाँ, जैसे डाक बाबू का प्यार, मुनमुन ने बनाई घड़ी परोपकार और घमंड ना करने की शिक्षा देती है, लेखक की विशेषता है कि उनकी शिक्षा कही भी थोपी हुई प्रतीत नहीं होती, भाषाशैली  सहज और रोचक है,बच्चे अवश्य ही इस पुस्तक का आनंद उठाएँगे।मेरा तो यह मानना है कि प्रौढ़ साहित्य बालोपयोगी भले न हो, किन्तु बाल साहित्य का पठन-पाठन सबके लिए उपयोगी है। इससे परिवार व समाज के वयस्क बच्चों के भाव व व्यवहार को अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से समझ सकेंगे ।ये कहानियाँ व्यस्त माता-पिता को बच्चों से जोड़े रखने का सरल और सशक्त माध्यम है।प्रकाश मनु को बधाई और साधुवाद।
                           -0-
प्रकाश मनु की चुनिन्दा बाल कहानियाँ : चित्रांकन सीमा ज़बीं हुसैन ,पहला संकलन : 2014 , मूल्य: 95.00रुपये, प्रकाशक : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ,भारत, नई दिल्ली  

Wednesday, June 3, 2009

पुस्तक समीक्षा


मास्टर जी ने कहा था :कमल चोपड़ा

ए आर एस पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स

1362, कश्मीरी गेट,

दिल्ली – 110 006


–––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––

इस बाल उपन्यास में एक ऐसे शरारती लड़के की कहानी है जिसका नाम किन्नू है। किन्नू अपने माँबाप की इकलौती संतान है। पिता गाँव के जमींदार हैं। रूप्एपैसे वाले आदमी हैं। गाँव में उनका बड़ा रौब है। इसी कारण अक्सर लोग उनसे घबराते कतराते हैं।

बेटा किन्नू अपने पिता के नक्शेकदम पर चल रहा था। गांव की पाठशाला में आए दिन अपने सहपाठियों को तंग करता था। उसको यह सब करना अच्छा लगता था। चाहे किसी का दिल दुखे, इसकी परवाह वह नहीं करता था। आए दिन कक्षा अध्यापक से उलझ जाता। पिटाई खाता और अध्यापक से बदला लेने की फिराक में रहता है ।

अध्यापक हमेशा उसे सुधर जाने की नसीहत देते। पर वह तो चिकना घड़ा था। इस कान से सुनता और दूसरे कान से अनसुना कर निकल जाता।

किन्नू की शरारत के कारण ही अध्यापक को स्कूल छोड़ना पड़ा। स्कूल किन्नू के पिता की दान राशि पर चलता था।

अचानक किन्नू के घर आग गई। माँबाप घर में फँस गए। पिता को लोग बचा नहीं पाए। माँ अकेली रह गई। किन्नू पढ़ालिखा नहीं था। मुनीम ने जमीनजायदाद पर कब्जा कर लिया। हार कर किन्नू शहर आ गया। किन्नू कई मुसीबतों में घिरा, अत्याचार भी सहा, ऐसे में उसे एक अपाहिज लड़की मिली जिसने किन्नू को भाई माना। किन्नू को समझ में आने लगा था कि काश उसने पढ़ाई को गंभीरता से लिया होता ! पुस्तक में कई रोचक प्रसंग हैं। लेखक की शैली वाकई प्रभावशाली है। पुस्तक का चित्रांकन सुन्दर है।

––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––

-ललित किशोर मंडोरा