मेरा आँगन

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Saturday, April 16, 2011

मूर्खता की नदी


सुधा भार्गव


एक लड़का था ।   उसका नाम मुरली था ।  उसको  किताबें बहुत पसंद थीं ।  मगर वह उनकी भाषा  नहीं समझता  था । खिसियाकर अपना सिर खुजलाने लगता  ।  उसकी हालत देख किताबें खिलखिलाकर हँसने लगतीं । 

एक दिन उसने वकील साहब को मोटी सी किताब पढ़ते देखा । उनकी नाक पर चश्मा रखा था ।   जल्दी -जल्दी उसके पन्ने पलट रहे थे । 
कुछ सोचकर वह कबाड़ी की दुकान पर गया जहाँ पुरानी और सस्ती किताबें मिलती थीं
-चाचा मुझे बड़ी से ,मोटी  सी किताब दे दो । 
-किताब का नाम ?
-कोई भी चलेगी । 
-कोई भे चलेगी ....कोई भी दौड़ेगी ......!तू अनपढ़ ...किताब की क्या जरूरत पड़ गई 
-पढूँगा  । 
-पढ़ेगा---- !चाचा की आँखों से हैरानी टपकने लगी  
-कैसे पढ़ेगा ?
-बताऊँ ...। 
-बता तो ,तेरी खोपड़ी में क्या चल रहा है । 
-बताऊँ ..बताऊँ ...। 
मुरली धीरे से उठा , कबाड़ी की तरफ बढ़ा और उसका चश्मा खींचकर भाग गया  । 
भागते भागते  बोला --चाचा ..चश्मा लगाने से सब पढ़ लूँगा । मेरा मालिक ऐसे ही पढ़ता है  ।  २-३ दिन बाद तुम्हारा चश्मा,और किताब लौटा जाऊँगा  

वकील साहब की लायब्रेरी में ही जाकर उसने दम लिया ।  कालीन पर आराम  से बैठ कर अपनी  थकान मिटाई ।  चश्मा लगाया  और किताब खोली । 
किताब में क्या लिखा है ...कुछ समझ नहीं पाया  ।  उसे तो ऐसा लगा जैसे छोटे  -छोटे काले कीड़े हिलडुल रहे हों ।  कभी चश्मा उतारता,कभी आँखों पर चढ़ाता । 

-क्या जोकर की तरह इधर-उधर देख रहा है ।  चश्मा भी इतना बड़ा  .....आँख -नाक सब ढक गये ,चश्मा है या तेरे मुँह  का ढक्कन ।   किताब  ने मजाक उड़ाया । 
-बढ़ -बढ़ के मत बोल ।  इस चश्मे से सब समझ जाऊँगा तेरे मोटे से पेट में क्या लिखा है । 
-अरे मोटी  बुद्धि के - - चश्मे से नजर पैनी होती है बुद्धि नहीं  ।   बुद्धि तो तेरी मोटी ही रहेगी ।  धेल्ला भर मुझे नहीं पढ़ पायेगा । 

मुरली घंटे भर किताब से जूझता रहा पर कुछ उसके पल्ले न पड़ा  ।  झुँझलाकर  किताब मेज के नीचे पटक दी । 
रात में उसने लाइब्रेरी में झाँका देखा -- मालिक के हाथों में पतली -सी किताब है ।  बिजली का लट्टू चमचमा रहा है और उन्होंने चश्मा भी नहीं पहन रखा है । 
मुरली उछल पडा --रात में तो मैं  जरूर --पढ़ सकता हूं ।  चश्मे की जरूरत ही नहीं । 

सुबह होते ही वह किताबों की  दुकान पर जा पहुँचा । 
-लो चाचा अपनी किताब और चश्मा ।  मुझे तो पतली- सी किताब दे दो  ।  लट्टू की रोशनी में चश्मे का क्या काम है । 
बिना चश्मे के कबाड़ी देख नहीं पा रहा था ।  उसे पाकर बहुत खुश हुआ बोला -
-तू एक नहीं  दस किताबें ले जा पर खबरदार ---मेरा चश्मा छुआ तो......। 
मुरली ने चार किताबें बगल में दबायीं ।  झूमता हुआ वहाँ से चल दिया  ।  घर में जैसे ही पहला बल्ब जला उसके नीचे किताब खोलकर बैठ गया ।  पन्नों के कान उमेठते -उमेठते उसकी उँगलियाँ दर्द करने लगीं पर वह एक अक्षर न पढ़ सका

कुछ देर बाद लाइब्रेरी में रोशनी हुई ।  मुरली चुपके से अन्दर गया और सिर झुकाकर बोला -मालिक आप मोटी किताब के पन्ने पलटते हो ,उसमें क्या लिखा है --सब समझ जाते हो क्या ?
-समझ तो आ जाता है ,क्यों ?क्या बात है ?
-मैं मोटी किताब लाया ,फिर पतली किताब लाया मगर वे मुझसे बातें ही नहीं करतीं । 
-बातें कैसे करें !तुम्हें तो उनकी भाषा आती नहीं  ।  भाषा समझने के लिए उसे सीखना होगा  ।  सीखने के लिए मूर्खता की नदी पार करनी पड़ेगी । 
--नदी --। 
-हाँ ,,,। अच्छा बताओ ,तुम नदी कैसे पार करोगे 
 -हमारे गाँव में एक नदी है।  एक बार हमने  देखा छुटकन को नदी पार करते ।  किनारे पर खड़े होकर जोर से उछल कर वह नदी में कूद गया । 
-तब तो तुम भी नदी पार कर लोगे । 
-अरे हम कैसे कर सके हैं  । हमें तैरना ही नहीं आता  - - ड़ूब जायेंगे  । 
-तब तो तुम समझ गये --नदी पार करने के लिए तैरना आना   जरूरी है । 
-बात तो ठीक है । 
-इसी तरह मूर्खता की नदी पार करने के लिए पढ़ना  जरूरी है। पढ़ाई की शुरुआत भी  किनारे से करनी होगी  । 
वह किनारा कल दिखाऊँगा । 

कल का मुरली बेसब्री से इन्तजार करने लगा ।  उसका उतावलापन टपका पड़ता था । 
-माँ ---माँ ,कल मैं मालिक के साथ घूमने जाऊँगा
-क्या करने !
-तूने तो केवल नदी का किनारा देखा होगा ,मैं पढ़ाई  का किनारा देखने जाऊँगा । 
माँ की  आँखों में अचरज  झलकने लगा । 

दूसरे दिन मुरली जब अपने मालिक से मिला,वे लाईब्रेरी में एक पतली सी किताब लिये बैठे थे ।  मुरली को देखते ही वे उत्साहित हो उठे --
-मुरली यह रहा तुम्हारा किनारा !किताब को दिखाते हुए बोले । 
-नदी का किनारा तो बहुत बड़ा होता है ---यह इतना छोटा !इसे तो मैं एक ही छलांग में पार कर लूंगा । 
-इसे पार करने के लिए अन्दर का एक -एक अक्षर प्यार से दिल में बैठाना होगा  ।  इन्हें याद करने के बाद दूसरी किताब फिर तीसरी किताब - - - -। 
-फिर मोटी किताब ---और मोटी किताब --मुरली ने अपने छोटे -छोटे हाथ भरसक फैलाये । 
कल्पना के पंखों पर उड़ता वह चहक रहा था। थोड़ा थम  कर बोला --
-क्या मैं आपकी तरह किताबें पढ़ लूँगा ?
-क्यों  नहीं !लेकिन  किनारे से चलकर धीरे -धीरे गहराई में जाओगे ।  फिर कुशल तैराक की तरह मूर्खता की नदी पार करोगे  । उसके बाद तो मेरी किताबों से भी बातें करना सीख जाओगे । 

मुरली ने एक निगाह किताबों पर डाली वे हँस-हँसकर उसे अपने पास बुला रही थीं ।  लेकिन मुरली ने भी निश्चय कर लिया था -किताबों के पास जाने से पहले उनकी भाषा सीख कर ही रहूँगा । 

वह बड़ी लगन से अक्षर माला पुस्तक खोलकर बैठ गया तभी सुनहरी किताब परी की तरह फर्र -फर्र उड़कर आई । 
बोली --मुरली तुम्हें पढ़ता देख कर हम  बहुत खुश हैं ।  अब तो हँस -हंसकर गले मिलेंगे और खुशी के गुब्बारे उड़ायेंगे
मुरली के गालों पर दो गुलाब खिल उठे और उनकी महक चारों तरफ फैल गई
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Sunday, April 18, 2010

हरियाली और पानी





-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
बहुत दिन पहले की बात है-हरियाली और पानी बहुत प्रेम से रहते थे ।बरगद ,पीपल ,आम और नीम की छाया में लेटकर पानी को बहुत सुख मिलता था। इन वृक्षों की हरियाली पानी पीकर और भी गहरी हो गई थी ।
एक दिन हरियाली बोली-“भाई पानी !तुम बहुत आलसी हो । दिन भर लेटे रहते हो। थोड़ी देर के लिए घूम -फिर लिया करो।”
पानी को हरियाली की यह सलाह अच्छी नहीं लगी ।वह नाराज़ होकर बोला-“यदि मैं यहाँ से चला गया, तो तुम नष्ट हो जाओगी।”
हरियाली तुनुक उठी-“जाना चाहते हो, जाओ । किसने रोका है तुमको?”
“ मैं जा रहा हूँ”-कहकर पानी चल दिया, “कुछ ही दिनों में पत्ते सूख जाएँगे ।उसके बाद तना और जड़ भी। तब तुम्हें पता चलेगा।”
पानी रूठकर कहीं दूर चला गया ।
पानी के वहाँ न होने से चारों तरफ़ धूल उड़ने लगी, बरगद ,पीपल ,आम और नीम के पत्ते मुरझाने लगे ।कुछ ही दिनों में सारे पत्ते पीले पड़ गए ।
बूढ़े बरगद ने बीमार और कमज़ोर हरियाली से कहा-“ तुमने पानी के साथ झगड़ा करके अच्छा नहीं किया ।पानी के बिना मेरा सिर चकराने लगा है।”
“गर्मी से हमारा भी जी घबराने लगा है”- आम ,नीम और पीपल बोले ।
“मुझसे भूल हो गई है । मैं पानी से क्षमा माँगना चाहती हूँ ”-हरियाली ने चारों वृक्षों से कहा ।
“ हाँ ,यही ठीक रहेगा”-चारों वृक्ष बोले ।
उधर हरियाली के बिना पानी भी दु:खी रहने लगा था । दिन भर धूल उड़ती और उसकी आँखोंमें भरती रहती ।सूरज तपता , जिससे उसके शरीर में जलन होने लगती। पानी जब हरियाली की बातें याद करता तो गुस्से से भर उठता ।उधर पीले पत्ते सूखकर धरती पर गिर पड़े ।
एक दिन पत्ते तेज़ हवा के झोंके के साथ उड़कर पानी को ढूँढ़ने के लिए निकल पड़े ।दिन भर उड़ते रहने के बाद उन्होंने पानी को ढूँढ़ लिया ।
सूखे पत्तों की दशा देखकर पानी को बहुत पश्चात्ताप हुआ ।पत्तों ने पानी को सभी वृक्षों की दुर्दशा के बारे बारे में विस्तार से बता दिया । सभी वृक्ष प्यास के कारण सूखने लगे थे ।
पानी ने वृक्षों की प्यास बुझाकर हरियाली को बचाने का दृढ़ निश्चय किया ।सूर्य की तेज़ धूप में उसका शरीर झुलसने लगा । चलते-चलते साँस फूलने लगी। सामने रेतीला मैदान था । पानी ने सोचा-रेतीला मैदान मुझे पी जाएगा। बरगद ,पीपल ,आम और नीम तक पहुँचना कठिन हो जाएगा ।
गर्मी के कारण धरती में जगह-जगह दरारें पड़ गई थीं ।पानी धीरे -धीरे बहकर उन दरारों में भर गया ।वह तीव्रता से आगे बढ़ने लगा ।
पानी ज़मीन के भीतर चलने लगा । रास्ते में कई चट्टानों ने उसका मार्ग रोकने की चेष्टा की ।पानी प्रयास करके फिर रास्ता ढूँढ़ लेता । चलते-चलते थकान के कारण वह हाँफने लगा । आगे बढ़ना कठिन हो गया । उसे कुछ जानी-पहचानी खुशबू महसूस हुई ।उसने छुआ- सूखी-सूखी उँगलियाँ-सी भीगने लगी। वह खुशी से उछल पड़ा-अरे! यह तो नीम है!”
वह दुगुने जोश से चलने लगा ।दूर- दूर तक फैली बरगद दादा की जड़ें भीगने लगीं। पानी ने थोड़ी ही देर में चारों वृक्षों की जड़ों को भिगो दिया । सूखी डालियों में नमी भरने लगी ।कुछ ही दिनों में कोंपलें निकल आईं । चारों वृक्ष हरे -भरे हो उठे ।
हरियाली ने पानी को गले से लगा लिया-“भैया !मुझे क्षमा कर दो ।मैं तुम्हें कभी बुरा-भला नहीं कहूँगी।”
“ग़लती मेरी ही थी”-पानी रोने लगा। टप्-टप् आँसू गिर रहे थे-“मैं तुम्हें छोड़कर कभी नहीं जाऊँगा।”
तब से हरियाली और पानी साथ-साथ रह रहे हैं ।
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