चिन्तन के क्षण
प्रसन्न
निराशा भले ही कुछ भी हो़, लेकिन कोई धर्म नहीं है।सदा मुस्कराते हुए प्रसन्न रहकर तुम ईश्वर के समीप पहॅंच सकते हो।क्या खोया , क्या पाया इससे ऊपर उठकर मन को सदा हल्का रखने में एक परम आनन्द है।यह काम किसी भी प्रार्थना से अधिक शक्तिशाली है।
क्षमा
आत्म–प्रशंसा , वैमनस्य–भावना तथा ईर्ष्या का पूर्णतया परित्याग करो।तुम सभी को धरती मॉं की तरह क्षमाशील होना चाहिए।यदि तुममें इस प्रकार की क्षमाशीलता होगी तो संसार तुम्हारे चरणों में झुक जायेगा।क्षमा न करने से जीवन की गति अवरुद्ध हो जायेगी।
संघर्ष
पवित्र रहने के लिए संघर्ष करते हुए समाप्त हो जाओ।हजार बार मृत्यु का स्वागत करो।निराश मत होओ।कष्ट के समय में भी धैर्य रखते हुए आशा का पल्ला मत छोड़ो। घबराकर गलत मार्ग पर मत बढ़ो। यदि अमृत प्राप्त नहीं हो सका तो कोई कारण नहीं कि विष ही पी लिया जाये।
पहचान
प्रशस्त होने का प्रयत्न करो।याद रखो गति और प्रगति में ही जीवन है।लेकिन जीवन में गति और प्रगति आती है–विनम्रता , कृतज्ञता और अपने उपकारी के प्रति सच्ची भावना से।अपने कार्य के प्रति निष्ठावान रहते हुए सभी के प्रति उचित सम्मान देना भी सीखो।
संचार
शक्ति और साधन खुद प्राप्त हो जायेंगे। तुम केवल अपने –आपको कार्य में रत कर दो और तब तुम्हें ज्ञात होगा कि एक जबरदस्त शक्ति तुम्हारे भीतर आ रही है। दूसरों के प्रति किया गया जरा सा काम भी हमारे भीतर शक्ति का संचार कर देता है। दूसरों के प्रति भलाई के विचार ही हमारी शक्ति के मूल साधन हैं।
उदारता
उदारता से बढ़कर कोई गुण नहीं ।नीचतम मनुष्य वह है जो केवल लेने के लिए हाथ बढ़ाता है।वह उच्चतम मनुष्य है जे सदा देता ही रहता है।हाथ देने के लिए ही बनाये गये हैं।भले ही तुम्हारे प्राण निकल रहे हों तो भी अपनी रोटी का अन्तिम टुकड़ा दे दो ,तुरन्त पूर्ण मनुष्य बन जाओगे।एकदम देवता।
प्रयत्न
असफलताओं के लिए खेद मत करो।वे स्वाभाविक हैं।वे जीवन का सौन्दर्य हैं।इन असफलताओं के बिना जीवन है ही क्या ? यदि जीवन में संघर्ष नहीं है , तो वह जीवन जीने योग्य नहीं। इसलिए एक हजार बार प्रयत्न करो और यदि एक हजार बार भी असफल रहो तो प्रयत्न और करो।
उत्पत्ति
कार्यशीलता एक अच्छा गुण है ; लेकिन उसकी प्राप्ति भी विचारशीलता से होती है।अत: अपने मस्तिष्क को उच्च विचारों और उच्च आदर्शों से परिपूर्ण करो।रात–दिन उन्हें अपने सम्मुख रखो और स्मरण करो।फिर उनमें से अपने आप महान कार्यो की उत्पत्ति होगी।
पक्षपात
पक्षपात को ही सभी बुराइयों की जड़ समझो।पक्षपात दूसरों के मन में अलगाव पैदा कर देता है। अलगाव पैदा होना अच्छी बात नहीं है।इससे व्यक्ति का विश्वास उठ जाता है और वह मान लेता है कि पक्षपात करने वाला अपने चरित्र से गिर गया है।अत: पक्षपात को अपने से दूर रखो तो आपदाएँ भी दूर रहेंगी।
जाग्रति
उठो और जागो और उस वक्त तक मत रुको जब तक कि मंजिल नही मिल जाती।तुम्हारी मंजिल तुम्हें ही खोजनी है और तुम्हें ही उस तक पहुँचना है।यदि तुम यह मानकर बैठे हो कि कोई आयेगा और तुम्हारा हाथ पकड़कर तुम्हारी मंजिल की तरफ ले जायेगा तो तुम भारी भूल के शिकार हो गये हो।अपनी मंजिल की ओर तुम्हें खुद ही बढ़ना है।
विश्वास
मैं उस धर्म और भगवान में विश्वास नहीं रखता जो विधवा के आँसू न पोंछ सके या किसी अनाथ व भूखे तक रोटी का टुकड्रा न ले जा सके।मैं उस धर्म में भी विश्वास नहीं रखता जो किसी को सहारा न दे सके ,किसी डूबते को न बचा सके।धर्म का मूल मंत्र ही यह है कि हम दूसरों के काम आयें।
बुद्धिमान
मृतक वापस नहीं लौटते ।बीती रातें फिर नहीं आतीं ।उतरी हुई लहर फिर नहीं उभरती।मनुष्य फिर से वही शरीर नहीं धारण कर सकता।इसलिए बीती हुई बातों को भूलकर वर्तमान को पूजो।नष्ट और खोई हुई शक्ति अथवा वस्तु का चिन्तन करने की अपेक्षा नये रास्ते पर चलो।जो बुद्धिमान होगा वह इस बात को अवश्य समझेगा।
पुरुषार्थ
पुरुषार्थ आलस्य का शत्रु है। आलस्य को हर प्रकार से रोकना चाहिए। पुरुषार्थ करते रहने का अभिप्राय है आलस्य को रोकना सभी बुराइयों को रोकना ;मानसिक व शारीरिक बु्राइयों को रोकना ।और जब तुम ये बुराइयाँ रोकने में सफल हो जाओगे, तो शान्ति और समृद्धि स्वयं तुम्हारे पास आ जायेगी।
परिणाम
प्रत्येक कार्य का परिणाम अच्छाई और बुराई का मिश्रण है।कोई भी अच्छा काम नहीं जिसमें थोडी बहुत बुराई न हो।अग्नि के साथ धुएँ की तरह बुराई भी प्रत्येक कार्य में रहती है।लेकिन हमें अपनेआप को अधिक से अधिक ऐसे कामों में लगाना चाहिये जिनका अच्छा परिणाम अधिक हो और बुरा काम से कम।
विचार
अपवित्र कल्पना और विचार भी अपवित्र कार्य की तरह बुरे हैं।नियंत्रित इच्छाएँ ही उच्च परिणाम तक पहुँचती हैं।मनुष्य अपवित्र कार्य तभी करता है जब उसके मन में अपवित्र विचार आते हैं।वे अपवित्र विचार उसे बुरे कार्य की ओर घसीट ले जाते हैं।मिर्च खाकर किसका मुँह मीठा हुआ है।
महापाप
दूसरों की निन्दा करना महापाप है।इससे पूर्णतया बचो।अनेक बातें दिमाग में आती हैं।यदि उन्हें प्रकट करने का प्रयत्न किया जाये तो राई का पहाड़ बन जाता है।प्रत्येक बात समाप्त हो जाती है यदि तुम चुप हो जाओ व भूल जाओ और क्षमा कर दो।निन्दा की बात पर हमें चुप रहने भूलने और क्षमा करने का गुण अपनाना चाहिए।
सन्तोष
सुख व्यक्ति के सामने अपने सिर पर दुख का ताज पहनकर आता है।जो सुख का स्वागत करना चाहता है उसे दुख का स्वागत करने के लिए भी सदा तैयार रहना चाहिये।सुख को मात्र सुख मानकर चलने वाला भविष्य में अधिक दुखी भी हो सकता है।अत: ऐसे सुख की कामना करो जो सभी के लिए कल्याणकारी हो।
साभार: विवेक के आनन्द से
प्रस्तुति : चन्द्र देव राम प्राचार्य के वि जवाहर नगर(बिहार)
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