मेरा आँगन

मेरा आँगन

Tuesday, September 20, 2011

शिक्षक -चोका



[शिक्षार्थी के लिए हर दिन शिक्षक दिवस है । ज्ञान की देवी सरस्वती शिक्षक के माध्यम  से ही हमारे हृदय तक पहुँचती है ।स्कूल या कॉलिज ही नहीं , जीवन में वह शिक्षक हमें किसी भी मोड़ पर, किसी भी रूप में मिल सकता है । आवश्यकता है उसको पहचानने की ।
- ऋता शेखर मधु
तेजस्वी थे वो
विलक्षण थी सोच
प्रखर वक्ता
जीवंत अभिव्यक्ति
थे वो हमारे
द्वितीय राष्ट्रपति
राधाकृष्णन
आदर्श शिक्षक भी
जन्मदिवस
बना सम्मान दिन
हमारे लिए
शिक्षक दिवस भी
मेरे शिक्षक
निस्पृह औ निश्छल
बन जाते जो
पथ के प्रदर्शक
देते रहते
सदा मार्गदर्शन
सीख लेते हैं
आत्मविश्वास हम
कर जाते जो
स्फ़ुरित, चिंतन को
आगे उनके
नतमस्तक हम
शत शत नमन !
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Saturday, September 10, 2011

मेरी माँ : एक फ़रिश्ता



प्रियंका सैनी

कक्षा 10 स
राजकीय प्रतिभा विकास विद्यालय ,रोहिणी सेक्टर -11 ,
 नई दिल्ली 

जाती थी माँ हर रोज़
उस हवेली  में
पूछा मैंने हर रोज़
हवेली जान के बारे में,
कहती माँ हर रोज़ यही
‘दुनिया का स्वर्ग है वहीं’
सोचा करती मैं ख़्यालों में-
वो हवेली माँ की तो नहीं ?
याद आई मुझे वो एकादशी की रात
कर रही थी जब मैं
अपने जन्म-दिन की बात
कहा था माँ ने -‘
दूँगी तुझे एक मधुर उपहार
अबकी बार ;
पर नहीं थे पैसे  माँ के पास ।
एक दिन पहुँची मैं माँ के पीछे-पीछे,
देखा-खड़ी है वहाँ एक औरत
माँ कह रही थी उसे ठकुराइन,
ठकुराइन गुर्राकर बोली-
‘जा बनाकर ला मेरे लिए कॉफ़ी’
उसका बोलना लगा मुजे बेढंगा
समझ गई थी मैं अब सब कुछ
जोड़ रही थी पैसे माँ
मेहनत करती थी दिन-रात
मुझे देना चाहती थी मधुर उपहार ।
माँ कह रही थी ठकुराइन को-
‘ कल मुझे जाना है रात होने से पहले
देना है अपनी लाडो को प्यारा उपहार’-
सुनकर इतना ढरके मेरे आँसू
गीली हो गईं हथेलियाँ ।
‘ओह ! मेरी माँ !’ -निकला मेरे मुँह से ।
ढली चाँदनी, आई सुबह नई !
सबसे प्यारा उपहार मुझे मिला
वह उपहार था -मेरी नई स्कूल ड्रेस,
मेरी माँ भला क्या कम है
किसी आकाश से उतरने वाले फ़रिश्ते से !
सचमुच फ़रिश्ता है मेरी माँ !!
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Sunday, September 4, 2011

क्या हुआ इंसान को


-अभिषेक सिंहल

क्या हुआ इंसान को , संवेदना से भी झिझकता है,
अपरिचित की हत्या पर, केवल चर्चा करता रहता है ।
मरने वाले के परिजनों को रोते-बिलकते देखता है,
आँखों को मूँद कर तनाव मुक्त सुषुप्त हो जाता है ।
विचारहीन बातें कर, चाय की चुस्कियाँ लेता है,
तर्क-वितर्क कर, सरकार और व्यवस्था को कोसता है ।
देश और सरकार की निंदा कर, आक्रोश प्रकट करता है,
देश का कुछ नहीं हो सकता, कहते-कहते हँसता है ।
देश के प्रति कर्तव्य पर, नेताओं पर प्रश्न चिह्न लगता है ,
वोट डालने की प्रक्रिया पर, चुप्पी साधे रहता है।
निर्लज्ज है यह मनुष्य, जो कि जानवर से भी बदतर है ,
जानवर तो अपनी प्रजाति को ही अपना अस्तित्व समझता है ।
समाज में हुए उपद्रव को, परिवार से भिन्न क्यों समझता है ?
क्या अपने किसी परिजन के साथ कुछ होने की प्रतीक्षा करता है?
जब तक नहीं होगा हमारा नारा , “मेरा समाज मेरा परिवार”,
तब तक होते रहेंगे अत्याचार
हम पर हर बार, हर बार , हर बार
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Monday, August 15, 2011

पठनीय और संग्रहणीय पुस्तकें


पुस्तक परिचय
अमर शहीद खुदीराम बोस (जीवनी):पंकज चतुर्वेदी ,पृष्ठ :24 , मूल्य : 11 रुपये ,संस्करण :2010, प्रकाशक : नेशनल बुक ट्र्स्ट ,इण्डिया नेहरू भवन 5 , इन्स्टीट्यूशनल एरिया , फेज़-2 ,वसन्त कुंज , नई दिल्ली-110070
11अगस्त 1908 की सुबह किशोर खुदीराम बोस को फाँसी दे दी गई । अवस्था 19 वर्ष ।किंग्सफोर्ड को बम विस्फोट से मारने का प्रयास किया । उस दिन बग्घी में किंग्सफोर्ड नहीं थे, उनके स्थान पर उनके मित्र की पत्नी और बेटी मारी गई ।मुज़फ़्फ़रपुर के इस काण्ड  में खुदीराम को फाँसी की सजा सुनाई गई । मुज़फ़्फ़रपुर जेल के जल्लाद ने खुदीराम को फाँसी का फ़न्दा लगाने से मना कर दिया तो अलीपुर जेल के जल्लाद को बुलाया गया ।1857 के बाद का यह सबसे बलिदानी था । देश प्रेम की भावना इनकी नस-नस में समाई हुई थी ।पंकज चतुर्वेदी ने बहुत ही रोचक और सरल भाषा में खुदीराम बोस के जीवन और त्याग का चित्रण किया है ।यह पुस्तक किशोरों के लिए पठनीय ही नही वरन् संग्रहणीय भी है ।
विपिन चन्द्र पाल (जीवनी):पंकज चतुर्वेदी ,पृष्ठ :24 , मूल्य : 11 रुपये ,संस्करण :2010, प्रकाशक : नेशनल बुक ट्र्स्ट ,इण्डियानेहरू भवन 5 , इन्स्टीट्यूशनल एरिया , फेज़-2 ,वसन्त कुंज , नई दिल्ली-110070
सशस्त्र विद्रोह के हिमायती विपिन चन्द्र पाल ने वन्देमातरम् का नारा लगाने वाले पत्रकारों की पिटाई से व्यथित होकर ‘वन्देमातरम्’ अखबार शुरू करने का निश्चय किया । रवीन्द्र नाथ टैगौर और अरविन्द घोष ने इस कार्य में भरपूर सहयोग किया ।अपनी कलम से विपिनचन्द्र पाल ने आज़ादी के साथ -साथ सामाजिक चेतना जगाने का काम भी किया ।रूढ़ियों का विरोध कलम के द्वारा तो किया ही अपने जीवन में भी उन आदर्शों का पालन किया । सम्पादन के क्षेत्र में इनका विशिष्ट कार्य सदा याद किया जाएगा ।लन्दन से प्रकाशित अंग्रेज़ी पत्र ‘स्वराज ‘ का सम्पादन किया  । अंग्रेज़ी मासिक ‘हिन्दू रिव्यू’ की स्थापना की इलाहाबाद से मोती लाल नेहरू द्वारा प्रकाशित ‘डेमोक्रेट’ साप्ताहिक का भी सम्पादन किया । बहुमुखी प्रतिभा के धनी विपिन चन्द्र पाल का जीवन प्रत्येक भारतीय के लिए अनुकरणीय है । इस छोटी -सी पुस्तक में पंकज चतुर्वेदी जी ने  इनके जीवन के विभिन्न आयामों को बखूबी सहेजा है ।इस तरह की पुस्तकों की आज के दौर में ज़्यादा ज़रूरत है ।
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Saturday, August 13, 2011

पंकज चतुर्वेदी जी का रोचक बाल साहित्य


कहाँ गए कुत्ते के सींग ?
पहले दुनिया ऐसी नहीं थी; यह बात वैज्ञानिक भी मानते हैं और समाज भी। पूर्वोत्तर राज्यों में यह मान्यता है कि पहले कुत्ते के सींग होते थे। फिर वे सींग गए कहाँ ? कहीं तो गए होंगे ना ? यह पुस्तक नगालैण्ड की एक ऐसी ही मान्यता पर आधरित है।

लो गर्मी आ गई
मौसम का बदलना महसूस करना बेहद जटिल है। कहा नहीं जा सकता कि कल से अमुक ऋतु आ जाएगी। लेकिन भारतीय वार-त्योहार बदलते मौसम की ओर इशारा करते हैं। रंगों का त्योहार होली किस तरह से गर्मी के आने की दस्तक देता है ? जरा इस पुस्तक के रंगों में डूब कर तो देखो !

दूर की दोस्त
चिड़िया भी आसमान में उड़ती है और वायुयान भी, लेकिन दोनों एक दूसरे को देख कर दूर भागते हैं। यह कहानी है ऐसी ही दूर की दोस्ती की।

पहिया


गाँव के बच्चे का खिलौना, दोस्त, हमराही ; सभी कुछ एक उपेक्षित सा पड़ा पहिया बन जाता है। एक पहिए की नजर एक गाँव का सफर ।

Tuesday, August 2, 2011

हम छोटे छोटे बच्चे हैं



मंजु मिश्रा
हम छोटे -छोटे बच्चे हैं
पर काम हमारे अच्छे हैं
हम बच्चे मन के सच्चे हैं
हम जो चाहें कर सकते हैं
हम छोटे छोटे बच्चे हैं
मम्मी पापा दादी -दादा
नानी -नाना चाची -चाचा
प्यार हमें सब करते हैं
हम खुशियों से घर भरते है
हम छोटे छोटे बच्चे हैं 
 चाहें तो हम आसमान में
पंख बिना उड़ सकते हैं
चाहें तो हम सागर की
लहरों पर चल सकते हैं
हम छोटे छोटे बच्चे हैं
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Sunday, July 10, 2011

त्रिलोक सिंह ठकुरेला की बाल कविताएँ

त्रिलोक सिंह ठकुरेला
जन्म तिथि :01–10–1966
जन्म स्थान :नगला मिश्रिया (हाथरस), उत्तर प्रदेश
साहित्य सृजन :विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में, कविता, दोहे, गीत, नवगीत, हाइकु, कुण्डलियां, बालगीत, लघुकथा एवं कहानी प्रकाशित
प्रकाशित कृति :नया सवेरा (बालगीत संग्रह)
संकलन :सृजन संगी, निर्झर, कारवाँ, फूल खिलते रहेंगे,
देषभक्ति की कविताएँ (काव्य संकलन),नवगीत : नई दस्तकें (नवगीत संकलन)
हाइकु–2009 (हाइकु संकलन), कई संकलनों में लघुकथाएँ
सम्मान : कई सम्मान प्राप्त
संप्रति:उत्तर पश्चिम रेलवे में इंजीनियर
सम्पर्क:बंगला संख्या एल – 99,रेलवे चिकित्सालय के सामने, आबूरोड –307026 (राजस्थान)
मोबाइल :09460714267
      trilokthakurela@yahoo.com
त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कुछ बाल कविताएँ ।ये कविताएँ इनके नए संग्रह  'नया  सवेरा' से ली गई हैं ।
1-नया सवेरा लाना तुम

टिक टिक करती घडि़याँ कहतीं
मूल्य समय का पहचानो ।
पल पल का उपयोग करो तुम
यह संदेश मेरा मानो  ।।

जो चलते हैं सदा, निरन्तर
बाजी जीत वही पाते ।
और आलसी रहते पीछे
मन मसोस कर पछताते ।।

कुछ भी नहीं असम्भव जग में ,
यदि मन में विश्वास अटल ।
शीश झुकायेंगे पर्वत भी ,
चरण धोयेगा सागर -जल।।

बहुत सो लिये अब तो जागो ,
नया सवेरा लाना तुम ।
फिर से समय नहीं आता है ,
कभी भूल मत जाना तुम ।।


2-मीठी बातें

मीठे  मीठे बोल सुनाती ,
फिरती डाली  डाली ।
सब का ही मन मोहित करती
प्यारी कोयल काली  ।।

बाग बाग में , पेड़ पेड़ पर,
मधुर सुरों में गाती ।
रूप नहीं , गुण प्यारे सबको
सबको यह समझाती ।।

मीठी  मीठी बातें कहकर
सब कितना सुख पाते ।
मीठी-मीठी बातें सुनकर
सब अपने हो जाते ।।

कहती कोयल प्यारे बच्चो !
तुम भी मीठा बोलो ।
प्यार भरी बातों से तुम भी
सब के प्यारे हो लो ।।


3-सीख

वर्षा आई , बंदर भीगा ,
लगा काँपने थर थर थर ।
बया घोंसले से यूँ बोली
भैया क्यों न बनाते घर ।।

गुस्से में भर बंदर कूदा ,
पास घोंसले के आया ।
तार तार कर दिया घोंसला
बड़े जोर से चिल्लाया ।।

बेघर की हो भीगी चिडि़या ,
दे बन्दर को सीख भली ।
मूरख को भी क्या समझाना,
यही सोच लाचार चली ।।

सीख उसे दो जो समझे भी ,
जिसे जरूरत हो भरपूर ।
नादानों से दूरी अच्छी ,
सदा कहावत है मशहूर ।।
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Tuesday, May 24, 2011

रोचक पुस्तकें । समीक्षा


रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
रेल भारती , मार्च -अप्रैल 2011 

Wednesday, April 20, 2011

नन्हें चित्रकार

मयंक ने रंग भरे
मिहिर ने रंग भरे

Saturday, April 16, 2011

मूर्खता की नदी


सुधा भार्गव


एक लड़का था ।   उसका नाम मुरली था ।  उसको  किताबें बहुत पसंद थीं ।  मगर वह उनकी भाषा  नहीं समझता  था । खिसियाकर अपना सिर खुजलाने लगता  ।  उसकी हालत देख किताबें खिलखिलाकर हँसने लगतीं । 

एक दिन उसने वकील साहब को मोटी सी किताब पढ़ते देखा । उनकी नाक पर चश्मा रखा था ।   जल्दी -जल्दी उसके पन्ने पलट रहे थे । 
कुछ सोचकर वह कबाड़ी की दुकान पर गया जहाँ पुरानी और सस्ती किताबें मिलती थीं
-चाचा मुझे बड़ी से ,मोटी  सी किताब दे दो । 
-किताब का नाम ?
-कोई भी चलेगी । 
-कोई भे चलेगी ....कोई भी दौड़ेगी ......!तू अनपढ़ ...किताब की क्या जरूरत पड़ गई 
-पढूँगा  । 
-पढ़ेगा---- !चाचा की आँखों से हैरानी टपकने लगी  
-कैसे पढ़ेगा ?
-बताऊँ ...। 
-बता तो ,तेरी खोपड़ी में क्या चल रहा है । 
-बताऊँ ..बताऊँ ...। 
मुरली धीरे से उठा , कबाड़ी की तरफ बढ़ा और उसका चश्मा खींचकर भाग गया  । 
भागते भागते  बोला --चाचा ..चश्मा लगाने से सब पढ़ लूँगा । मेरा मालिक ऐसे ही पढ़ता है  ।  २-३ दिन बाद तुम्हारा चश्मा,और किताब लौटा जाऊँगा  

वकील साहब की लायब्रेरी में ही जाकर उसने दम लिया ।  कालीन पर आराम  से बैठ कर अपनी  थकान मिटाई ।  चश्मा लगाया  और किताब खोली । 
किताब में क्या लिखा है ...कुछ समझ नहीं पाया  ।  उसे तो ऐसा लगा जैसे छोटे  -छोटे काले कीड़े हिलडुल रहे हों ।  कभी चश्मा उतारता,कभी आँखों पर चढ़ाता । 

-क्या जोकर की तरह इधर-उधर देख रहा है ।  चश्मा भी इतना बड़ा  .....आँख -नाक सब ढक गये ,चश्मा है या तेरे मुँह  का ढक्कन ।   किताब  ने मजाक उड़ाया । 
-बढ़ -बढ़ के मत बोल ।  इस चश्मे से सब समझ जाऊँगा तेरे मोटे से पेट में क्या लिखा है । 
-अरे मोटी  बुद्धि के - - चश्मे से नजर पैनी होती है बुद्धि नहीं  ।   बुद्धि तो तेरी मोटी ही रहेगी ।  धेल्ला भर मुझे नहीं पढ़ पायेगा । 

मुरली घंटे भर किताब से जूझता रहा पर कुछ उसके पल्ले न पड़ा  ।  झुँझलाकर  किताब मेज के नीचे पटक दी । 
रात में उसने लाइब्रेरी में झाँका देखा -- मालिक के हाथों में पतली -सी किताब है ।  बिजली का लट्टू चमचमा रहा है और उन्होंने चश्मा भी नहीं पहन रखा है । 
मुरली उछल पडा --रात में तो मैं  जरूर --पढ़ सकता हूं ।  चश्मे की जरूरत ही नहीं । 

सुबह होते ही वह किताबों की  दुकान पर जा पहुँचा । 
-लो चाचा अपनी किताब और चश्मा ।  मुझे तो पतली- सी किताब दे दो  ।  लट्टू की रोशनी में चश्मे का क्या काम है । 
बिना चश्मे के कबाड़ी देख नहीं पा रहा था ।  उसे पाकर बहुत खुश हुआ बोला -
-तू एक नहीं  दस किताबें ले जा पर खबरदार ---मेरा चश्मा छुआ तो......। 
मुरली ने चार किताबें बगल में दबायीं ।  झूमता हुआ वहाँ से चल दिया  ।  घर में जैसे ही पहला बल्ब जला उसके नीचे किताब खोलकर बैठ गया ।  पन्नों के कान उमेठते -उमेठते उसकी उँगलियाँ दर्द करने लगीं पर वह एक अक्षर न पढ़ सका

कुछ देर बाद लाइब्रेरी में रोशनी हुई ।  मुरली चुपके से अन्दर गया और सिर झुकाकर बोला -मालिक आप मोटी किताब के पन्ने पलटते हो ,उसमें क्या लिखा है --सब समझ जाते हो क्या ?
-समझ तो आ जाता है ,क्यों ?क्या बात है ?
-मैं मोटी किताब लाया ,फिर पतली किताब लाया मगर वे मुझसे बातें ही नहीं करतीं । 
-बातें कैसे करें !तुम्हें तो उनकी भाषा आती नहीं  ।  भाषा समझने के लिए उसे सीखना होगा  ।  सीखने के लिए मूर्खता की नदी पार करनी पड़ेगी । 
--नदी --। 
-हाँ ,,,। अच्छा बताओ ,तुम नदी कैसे पार करोगे 
 -हमारे गाँव में एक नदी है।  एक बार हमने  देखा छुटकन को नदी पार करते ।  किनारे पर खड़े होकर जोर से उछल कर वह नदी में कूद गया । 
-तब तो तुम भी नदी पार कर लोगे । 
-अरे हम कैसे कर सके हैं  । हमें तैरना ही नहीं आता  - - ड़ूब जायेंगे  । 
-तब तो तुम समझ गये --नदी पार करने के लिए तैरना आना   जरूरी है । 
-बात तो ठीक है । 
-इसी तरह मूर्खता की नदी पार करने के लिए पढ़ना  जरूरी है। पढ़ाई की शुरुआत भी  किनारे से करनी होगी  । 
वह किनारा कल दिखाऊँगा । 

कल का मुरली बेसब्री से इन्तजार करने लगा ।  उसका उतावलापन टपका पड़ता था । 
-माँ ---माँ ,कल मैं मालिक के साथ घूमने जाऊँगा
-क्या करने !
-तूने तो केवल नदी का किनारा देखा होगा ,मैं पढ़ाई  का किनारा देखने जाऊँगा । 
माँ की  आँखों में अचरज  झलकने लगा । 

दूसरे दिन मुरली जब अपने मालिक से मिला,वे लाईब्रेरी में एक पतली सी किताब लिये बैठे थे ।  मुरली को देखते ही वे उत्साहित हो उठे --
-मुरली यह रहा तुम्हारा किनारा !किताब को दिखाते हुए बोले । 
-नदी का किनारा तो बहुत बड़ा होता है ---यह इतना छोटा !इसे तो मैं एक ही छलांग में पार कर लूंगा । 
-इसे पार करने के लिए अन्दर का एक -एक अक्षर प्यार से दिल में बैठाना होगा  ।  इन्हें याद करने के बाद दूसरी किताब फिर तीसरी किताब - - - -। 
-फिर मोटी किताब ---और मोटी किताब --मुरली ने अपने छोटे -छोटे हाथ भरसक फैलाये । 
कल्पना के पंखों पर उड़ता वह चहक रहा था। थोड़ा थम  कर बोला --
-क्या मैं आपकी तरह किताबें पढ़ लूँगा ?
-क्यों  नहीं !लेकिन  किनारे से चलकर धीरे -धीरे गहराई में जाओगे ।  फिर कुशल तैराक की तरह मूर्खता की नदी पार करोगे  । उसके बाद तो मेरी किताबों से भी बातें करना सीख जाओगे । 

मुरली ने एक निगाह किताबों पर डाली वे हँस-हँसकर उसे अपने पास बुला रही थीं ।  लेकिन मुरली ने भी निश्चय कर लिया था -किताबों के पास जाने से पहले उनकी भाषा सीख कर ही रहूँगा । 

वह बड़ी लगन से अक्षर माला पुस्तक खोलकर बैठ गया तभी सुनहरी किताब परी की तरह फर्र -फर्र उड़कर आई । 
बोली --मुरली तुम्हें पढ़ता देख कर हम  बहुत खुश हैं ।  अब तो हँस -हंसकर गले मिलेंगे और खुशी के गुब्बारे उड़ायेंगे
मुरली के गालों पर दो गुलाब खिल उठे और उनकी महक चारों तरफ फैल गई
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