प्रेम और शांति
अगर हमें दुनिया में सच्ची शांति प्राप्त करनी है और अगर हमें युद्ध के विरुद्ध लड़ाई लड़नी है तो हमें बालकों से इसका आरंभ करना होगा, और अगर बालक अपनी स्वभाविक निर्दोषता के साथ बड़े होंगे, तो हमें संघर्ष नहीं करना पड़ेगा, हमें निष्पफल और निरर्थक प्रस्ताव पास नहीं करने पड़ेगे। बल्कि हम प्रेम से अध्कि प्रेम की ओर
और शांति अधिक शांति की ओर बढ़ेंगे – यहाँ तक कि अंत में दुनिया के चारों कोने उस प्रेम और शांति से
भर जाएँगे, जिसके लिए आज सारी दुनिया जाने या अनजाने तरस और तड़प रही है।
'यंग इंडिया' – 19–11–1931
प्राचीन काल के विद्यार्थी
प्राचीन काल में हमारे विद्यार्थी ब्रहमचारी, अर्थात ईश्वर से डरकर चलने वाले, कहे जाते हैं। राजा–महाराजा और समाज के बड़े–बूढ़े उनका सम्मान करते थे। राष्ट्र स्वेच्छा से उनके पालन–पोषण की जिम्मेदारी अपने सिर लेता था और वे लोग बदले में राष्ट्र की सौगुनी बलवती आत्माएँ, सौगुने शक्तिशाली मस्तिष्क और सौगुनी बलवती भुजाएँ
अर्पण करते थे।
'यंग इंडिया' 9–6' 1932 मोहनदास करमचन्द गाँधी
1 – बालक
बालक माता–पिता की आत्मा है।
बालक घर का आभूषण है।
बालक आँगन की शोभा है।
बालक कुल का दीपक है।
बालक तो हमारे जीवन–सुख की प्रफुल्ल और प्रसन्न खिलती हुई कली है।
2 – बालक की देन
आपके शोक को कौन भुलाता है?
अपनी थकान को कौन मिटाता है?
आपको बाँझपन से कौन बचाता है?
आपके घर को किलकारियों से कौन भरता है?
आपकी हँसी को कौन कायम रखता है?
बालक!
प्रभु को पाने के लिये बालक की पूजा कीजिए।
3 – क्रांति और शांति
ईश्वर की सृष्टि में बालक उसका एक अद्भुत और निर्दोष सृजन है।
हम बालक के विकास की गति को पहचानें।
जिसने आज के बालक को स्वतंत्र और स्वाधीन बनने की अनुकूलता कर दी है,
उसने मनुष्य जाति को सर्वांगीण काति और सम्पूर्ण शांति के मार्ग पर चलता कर दिया है।
4 – जवाब दीजिए
मैं खेलूँ कहाँ?
मैं कूदूँ कहाँ?
मैं गाऊँ कहाँ?
मैं किसके साथ बात करूँ?
बोलता हूँ तो माँ को बुरा लगता है।
खेलता हूँ तो पिता खीजते हैं।
कूदता हूँ, तो बैठ जाने को कहते हैं।
गाता हूँ, तो चुप रहने को कहते हैं।
अब आप ही कहिए कि मैं कहाँ जाऊँ? क्या करूँ?
5–खुद काम करने दीजिए
बालक को खुद काम करने का शौक होता है।
उसे रूमाल धोने दीजिए।
उसे प्याला भरने दीजिए।
उसे फूल सजाने दीजिए।
उसे कटोरी माँजने दीजिए।
उसे मटर की फली के दाने निकालने दीजिए।
उसे परोसने दीजिए।
बालक को सब काम खुद ही करने दीजिए।
उसकी अपनी मर्जी से करने दीजिए।
उसकी अपनी रीति से करने दीजिए।
6–परख
हमारी आँख में अमृत है या विष,
हमारी बोली में मिठास है या कडुआहट,
हमारे स्पर्श में कोमलता है या कर्कशता,
हमारे दिल में शांति,है या अशांति,
हमारे मन में आदर है या अनादर,
बालक इन बातों को तुरंत ही ताड़ लेता है।
बालक हमें एकदम पहचान लेता है।
7 – दुश्मन
'सो जा, नहीं तो बाबा पकड़ कर ले जाएगा।'
'खा ले, नहीं तो चोर उठा कर ले भागेगा।'
'बाघ आया !'
'बाबा आया !'
'सिपाही आया !'
'चुप रह, नहीं तो कमरे में बंद कर दूँगी।'
'पढ़ने बैठ नहीं तो पिटाई करूँगी।'
जो इस तरह अपने बालकों को डराते हैं, वे बालकों के दुश्मन हैं।
8–हम क्या सोचेंगे?
बालक का हास्य जीवन की प्रफुल्लता है।
बालक का रुदन जीवन की अकुलाहट है।
बालक के हास्य से फूल खिलता है।
बालक के रुदन से फूल मुरझाता है।
हमारे घरों में बाल–हास्य की मंगल शहनाइयों के बदले
बाल–रुदन के रण–वाद्य क्यों बजते हैं?
क्या हम सोचेंगे?
9–पृथ्वी पर स्वर्ग
यदि हम बालकों को अपने घरों में उचित स्थान दें,
तो हमारी इस पृथ्वी पर ही स्वर्ग की सृष्टि हो सके।
स्वर्ग बालक के सुख में है।
स्वर्ग बालक के स्वास्थ्य में है।
स्वर्ग बालक की प्रसन्नता में है।
स्वर्ग बालक की निर्दोष मस्ती में है।
स्वर्ग बालक के गाने में और गुनगुनाने में है।
10–महान आत्मा
बालक की देह छोटी है, लेकिन उसकी आत्मा महान है।
बालक की देह विकासमान है।
बालक की शक्तियाँ विकासशील हैं।
लेकिन उसकी आत्मा तो सम्पूर्ण है।
हम उस आत्मा का सम्मान करें।
अपनी गलत रीति–नीति से हम बालक की शुद्ध आत्मा को भ्रष्ट और कलुषित न करें।
11–हम समझें
बालक सम्पूर्ण मनुष्य है।
बालक में बुद्धि है, भावना है, मन है, समझ है।
बालक में भाव और अभाव है, रुचि और अरुचि है।
हम बालक की इच्छाओं को पहचानें।
हम बालक की भावनाओं को समझें।
बालक नन्हा और निर्दोष है।
अपने अहंकार के कारण हम बालक का तिरस्कार न करें।
अपने अभिमान के कारण हम बालक का अपमान न करें।
12–चाह
बालक को खुद खाना है, आप उसे खिलाइए मत।
बालक को खुद नहाना है, आप उसे नहलाइए मत।
बालक को खुद चलना है, आप उसका हाथ पकड़िए मत।
बालक को खुद गाना है, आप उससे गवाइए मत।
बालक को खुद खेलना है, आप उसके बीच में आइए मत।
क्योंकि बालक स्वावलम्बन चाहता है।
13–क्या इतना भी नहीं करेंगे?
क्लब में जाना छोड़कर बालक को बगीचे में ले जाइए।
गपशप करने के बदले बालक को चिड़ियाघर दिखाने ले जाइए।
अखबार पढ़ना छोड़कर बालक की बातें सुनिए।
रात सुलाते समय बालक को बढ़िया कहानियाँ सुनाइए।
बालक के हर काम में गहरी दिलचस्पी दिखाइए।
14–नौकर की दया
सचमुच वह घर बड़भागी घर है।
जहाँ पति–पत्नी प्रेमपूर्वक रहते हैं।
जिसके आँगन में गुलाब के फूल के से बालक खेलते–कूदते हैं।
जहाँ माता–पिता बालकों को अपने प्राणों की तरह सहेजते हैं।
जहाँ बालक बड़ों से आदर पाते हैं।
और जहाँ बालकों को घर के नौकरों की दया पर जीना नहीं पड़ता है।
सचमुच वह घर एक बड़भागी घर है।
15–आत्म सुधार
बालक का सम्मान इसलिए कीजिए, कि हममें आत्म–सम्मान की भावना जागे।
बालक को डाँटिए–डपटिए मत,
जिससे डाँटने–डपटने की हमारी गलत आदत छूटने लगे।
बालक को मारिए–पीटिए मत,
जिससे मारने–पीटने की हमारी पशु–वृत्ति नष्ट हो सके।
इस तरह अपने को सुधरकर ही
हम अपने बालकों का सही विकास कर सकेंगे।
16 –भय और लालच
माँ–बाप और शिक्षक समझ लें कि
मारने से या ललचाने से बालक सुधर नहीं सकते,
उलटे वे बिगड़ते हैं।
मारने से बालक में गुंडापन आ जाता है।
ललचाने से बालक लालची बन जाता है।
भय और लालच से बालक बेशरम, ढीठ और दीन–हीन बन जाता है।
17 – सच्ची शाला : घर
अगर माँ–बाप यह मानते हैं कि
स्वयं चाहे जैसा आचरण करके भी
वे अपने बालकों को संस्कारी बना सकेगें,
तो वे बड़ी भूल करते हैं।
माँ–बाप और घर, दोनों दुनिया की
सबसे बड़ी और शक्तिशाली शालाएँ हैं।
घर में बिगाड़े गए बालक को भगवान भी सुधार नहीं सकता!
18 – प्रकृति का उपहार
प्रकृति से दूर रहने वाला बालक, प्रकृति के भेद को कैसे जानेगा?
जगमगाती चाँदनी, कलकल बहती नदी,
खेत की मिट्टी,
बाड़ी के घर, टेकरी के कंकर, खुली हवा और आसमान के रंग,
ये सब वे उपहार हैं, जो बालक को प्रकृति से प्राप्त हुए हैं।
बालक को जी भरकर प्रकृति का आनन्द लूटने दीजिए।
19 – गतिमान
बालक पल–पल में बढ़नेवाला प्राणी है।
बालक की दृष्टि प्रश्नात्मक है।
बालक का हृदय उद्गारात्मक है।
बालक के व्याकरण में प्रश्न और उद्गार हैं।
लेकिन पूर्णविराम कहीं नहीं हैं।
बालक का मतलब है, मूर्तिमन्त गति –
अल्प विराम भी नहीं।
20 – नया युग
नागों की पूजा का युग बीत चुका है।
प्रेतों की पूजा का युग बीत चुका है।
पत्थरों की पूजा का युग बीत चुका है।
मानवों की पूजा का युग भी बीत चुका है।
अब तो, बालकों की पूजा का युग आया है।
बालकों की सेवा ही उनकी पूजा है।
21 – झगड़े
माता–पिता के और बड़ों के झगड़ों के कारण
घर का वातावरण अकसर अशान्त रहने लगता है।
इससे बालक बहुत परेशान हो उठते हैं।
और किसी कारण नहीं, तो अपने बालकों के कारण ही
हम घर में हेलमेल से भरा जीवन जीना सीख लें।
घर के शान्त और सुखी वातावरण में
बालक का महान शिक्षण निहित है।
22 – गिजुभाई की बात
बालकों ने प्रेम देकर मुझे निहाल किया।
बालकों ने मुझे नया जीवन दिया।
बालकों को सिखाते हुए मैं ही बहुत सीखा।
बालकों को पढ़ाते हुए मैं ही बहुत पढ़ा।
बालकों का गुरु बनकर मैं उनके गुरु–पद को समझ सका।
यह कोई कविता नहीं है।
यह तो मेरे अनुभव की बात है।
23 – दिव्य संदेश
बालदेव की एकोपासना कीजिए ।
अकेले इस एक ही काम में बराबर लगे रहिए।
सफलता की यही चाबी है।
बालकों द्वारा प्रभु के संदेश को ग्रहण करने की बात मनुष्य को सूझती क्यों नहीं है?
बालक का संदेश किसी एक जाति या देश के लिए नहीं है।
बालक का संदेश तो समूची मनुष्य–जाति के लिए एक दिव्य संदेश है।
24–जीवित ग्रंथ
जो पुस्तकें पढ़कर ज्ञान प्राप्त करेंगे, वे शिक्षक बनेंगे।
जो बालकों को पढ़कर ज्ञान प्राप्त करेंगे, वे शिक्षा–शास्त्री बनेंगे।
शिक्षा शास्त्री के लिए हरएक बालक
एक समर्थ, अद्वितीय और जीवित ग्रंथ है।
25–बालक की शक्ति
आप सारी दुनिया को धोखा दे सकते हैं,
लेकिन अपने बालकों को धोखा नहीं दे सकते हैं।
आप सबको सब कहीं बेवकूफ बना सकते हैं,
लेकिन अपने बालकों को कभी बेवकूफ नहीं बना सकते।
आप सबसे सब कुछ छिपा सकते हैं,
लेकिन अपने बालकों से कुछ भी नहीं छिपा सकते।
बालक सर्वज्ञ हैं, सर्वव्यापक हैं, सर्वशक्तिमान हैं।
26–बातें बेकार हैं
क्या हमारे पढ़ने, सोचने और लिखने–भर से
हमारा काम पूरा हो जाता है।
नहीं, हमें तो शिक्षा के नये–नये मन्दिरों का निर्माण करना है,
और उन मन्दिरों में अब तक अपूज्य रही सरस्वती देवी की स्थापना करनी है।
बालकों के लिए नये युग का आरम्भ हुआ है।
केवल बातें करने से अब कुछ बनेगा नहीं।
कुछ कीजिए! कुछ करवाइये!!
27–एड़ी का पसीना चोटी तक
बालक के साथ काम करना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल भी है।
बाल–स्वभाव का ज्ञान, बालक के लिए गहरी भावना और सम्मान,
बालक के व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धा और उसके प्रति आन्तरिक प्रेम,
इस सबको प्राप्त करने में एड़ी का पसीना चोटी तक पहुँचाना पड़ता है।
28–याद रखिए
गली की निर्दोष धूल बालक को चन्दन से भी अधिक प्यारी लगती है।
हवा की मीठी लहरें बालक के लिए माँ के चुम्बन से भी अधिक मीठी होती हैं।
सूरज की कोमल किरणें बालक को हमारे हाथ से भी अधिक मुलायम लगती हैं।
29–चैन कैसे पड़े?
जब तक बालक घरों में मार खाते हैं,
और विद्यालयों में गालियाँ खाते हैं,
तब तक मुझे चैन कैसे पड़े?
जब तक बालकों के लिए पाठशालाएँ, वाचनालय, बाग–बगीचे और क्रीड़ांगन न बनें,
तब तक मुझे चैन कैसे पड़े?
जब तक बालकों को प्रेम और सम्मान नहीं मिलता, तब तक मुझे चैन कैसे पड़े?
30 – शिक्षक के लिए सब समान
बालक कई प्रकार के होते हैं।
अपंग और अंधे, लूले और लंगड़े, मूर्ख और मंद–बुद्धि,
काले और कुरूप, कोढ़ी और खाज–खुजली वाले,
इसी तरह खूबसूरत, ताजे–तगड़े, चपल, चंचल, होशियार और चलते–पुरजे।
सच्चे शिक्षक की नजर में ये सब समान रूप से भगवान के ही बालक हैं।
31–बाल–क्रीड़ांगण
क्या भारत के लाखों–करोड़ों बालकों को हम हमेशा गन्दी गलियों में ही भटकने देंगे?
या तो हम बालकों को घरों में काम करने के मौके दें,
या गली–गली में और चौराहों–चौराहों पर बाल क्रीड़ांगन खड़े करें।
ये बाल क्रीड़ांगन ही बाल विकास के सबसे आसान, अच्छे और सस्ते साधन हैं।
32–करेंगे या मरेंगे
मैं पल–पल में नन्हें बच्चों में विराजमान
महान आत्मा के दर्शन करता हूँ।
यह दर्शन ही मुझे इस बात के लिए प्रेरित कर रहा है
कि मैं बालकों के अधिकारों की स्थापना करने के लिए जिन्दा हूँ,
और इस काम को करते–करते ही मर–मिट जाऊँगा।
33–धर्म का शिक्षण
धर्म की बातें कह कर,
धर्म के काम करवा कर,
धर्म की रूढ़ियों की पोशाकें पहना कर,
हम बालकों को कभी धर्माचरण करने वाला बना नहीं सकेंगे।
धर्म न किसी पुस्तक में है, और न किसी उपदेश में है।
धर्म कर्म–काण्ड की जड़ता में भी नहीं है।
धर्म तो मनुष्य के जीवन में है।
अगर शिक्षक और माता–पिता अपने जीवन को धर्मिक बनाए रखेंगे,
तो बालक को धर्म का शिक्षण मिलता रहेगा।
34–अपनी ओर देख
जब तू प्रभु नहीं है तो अपने बालकों का प्रभु क्यों बनता है।
जब तू सर्वज्ञ नहीं है, तो बालकों की अल्पज्ञता पर क्यों हँसता है?
जब तू सर्वशक्तिमान नहीं है, तो बालकों की अल्प शक्ति पर क्यों चिढ़ता है?
जब तू संपूर्ण नहीं है, तो बालकों की अपूर्णता पर क्यों क्षुब्ध होता है?
पहले तू अपनी ओर देख, फिर अपने बालकों की ओर देख!
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साभार : http://arvindguptatoys.com
प्रस्तुति-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'