मेरा आँगन

मेरा आँगन

Thursday, June 18, 2009

महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ








ड्रीम 2007
एक अंक : 5 रुपए
सम्पादक :डॉ वी बी काम्बले
हिन्दी और अंग्रेज़ी में प्रकाशित होने वाली विज्ञान की महत्त्वपूर्ण पत्रिका है । इसमें प्रत्येक लेख दोनों भाषाओं में प्रकाशित किया जाता है ।विज्ञान में रुचि रखने वाले अध्यापकों एवं छात्रों के लिए एक ज़रूरी पत्रिका है । यह पत्रिका रटने के बजाय व्यावहारिक ज्ञान एवं वैज्ञानिक अभिरुचि को प्रोत्साहित करती है । विज्ञान को रोचक ढंग से प्रस्तुत करना इस पत्रिका का प्रमुख उद्देश्य है ।00000
विपनेट संवाद[ VIPNET NEWS ]
मूल्य :दो रुपए

सम्पादक : बी के त्यागी
सहायक सम्पादक : निमिष कपूर
इस संवाद पत्रिका में विज्ञान क्लब के समाचार और गतिविधियों की जानकारी रहती है ।इस समाचार पत्रिका में हिन्दी और अंग्रेजी में महत्त्वपूर्ण लेख एवं रोचक पहेलियाँ भी रहती हैं। विद्यालयों को भारत सरकार के इस पवित्र कार्य से ज़रूर जुड़ना चाहिए ।
पत्रिकाओं के मिलने का पता:-

विज्ञान प्रसार,सी-24 , कुतुब इंस्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110016
Vigyan Prasar ,C-24, Qutub Institutional Area New Delhi 110016
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प्रस्तुति-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Wednesday, June 3, 2009

पुस्तक समीक्षा


मास्टर जी ने कहा था :कमल चोपड़ा

ए आर एस पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स

1362, कश्मीरी गेट,

दिल्ली – 110 006


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इस बाल उपन्यास में एक ऐसे शरारती लड़के की कहानी है जिसका नाम किन्नू है। किन्नू अपने माँबाप की इकलौती संतान है। पिता गाँव के जमींदार हैं। रूप्एपैसे वाले आदमी हैं। गाँव में उनका बड़ा रौब है। इसी कारण अक्सर लोग उनसे घबराते कतराते हैं।

बेटा किन्नू अपने पिता के नक्शेकदम पर चल रहा था। गांव की पाठशाला में आए दिन अपने सहपाठियों को तंग करता था। उसको यह सब करना अच्छा लगता था। चाहे किसी का दिल दुखे, इसकी परवाह वह नहीं करता था। आए दिन कक्षा अध्यापक से उलझ जाता। पिटाई खाता और अध्यापक से बदला लेने की फिराक में रहता है ।

अध्यापक हमेशा उसे सुधर जाने की नसीहत देते। पर वह तो चिकना घड़ा था। इस कान से सुनता और दूसरे कान से अनसुना कर निकल जाता।

किन्नू की शरारत के कारण ही अध्यापक को स्कूल छोड़ना पड़ा। स्कूल किन्नू के पिता की दान राशि पर चलता था।

अचानक किन्नू के घर आग गई। माँबाप घर में फँस गए। पिता को लोग बचा नहीं पाए। माँ अकेली रह गई। किन्नू पढ़ालिखा नहीं था। मुनीम ने जमीनजायदाद पर कब्जा कर लिया। हार कर किन्नू शहर आ गया। किन्नू कई मुसीबतों में घिरा, अत्याचार भी सहा, ऐसे में उसे एक अपाहिज लड़की मिली जिसने किन्नू को भाई माना। किन्नू को समझ में आने लगा था कि काश उसने पढ़ाई को गंभीरता से लिया होता ! पुस्तक में कई रोचक प्रसंग हैं। लेखक की शैली वाकई प्रभावशाली है। पुस्तक का चित्रांकन सुन्दर है।

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-ललित किशोर मंडोरा

Monday, June 1, 2009

हर कदम परीक्षा



कमल चोपड़ा
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काम की तलाश में इधर–उधर धक्के खाने के बाद निराश होकर मधुकांत घर लौटने लगा तो पीछे से आवाज आई, ‘ऐ भाई, यहाँ कोई मजदूर मिलेगा क्या?’
मधुकांत ने मुड़कर देखा तो एक झुकी हुई कमर वाला बूढ़ा तीन गठरियाँ उठाए हुए खड़ा है। मधुकांत ने कहा, ‘‘हाँ बोलो क्या काम है? मैं ही मजदूरी कर लूँगा।’’
मुझे रामपुर जाना है....। दो गठरियाँ मैं उठा लूँगा पर.... मेरी एक गठरी रामपुर पहुँचवा दो, दो रूपए दूँगा। बोलो मंजूर है।
ठीक है। चलो.... आप बुजुर्ग हैं। आपकी इतनी मदद करना तो मैं यों भी फर्ज समझता हूँ।
मधुकांत ने गठरी उठाते हुए कहा, ‘चलिये काफी भारी गठरी है।’
‘हाँ.... इसमें एक–एक रुपये के सिक्के हैं।’ बूढ़े ने फुसफुसाते हुए कहा।
मधुकांत ने सुना तो सोचा, ‘होंगे मुझे क्या? मुझे तो अपनी मजदूरी से मतलब है।ये सिक्के कितने दिन चलेंगे? मधुकांत ने देखा, बूढ़ा उस पर नजर रखे हुए है। उसने सोचा ‘ये सोच रहा होगा कहीं ये भाग ही न जाए। पर मैं ऐसी बेईमानी और चोरी करने में विश्वास नहीं करता। मैं सिक्कों के लालच में फंसकर किसी के साथ बेईमानी नहीं करूँगा।
चलते–चलते आगे एक नदी आ गई। मधुकांत तो नदी पार करने के लिए झट से पानी में उतर गया पर बूढ़ा नदी के किनारे खड़ा रहा। मधुकांत ने कहा.....क्या हुआ? रूक क्यों गए?
‘बूढ़ा आदमी हूँ।’ मेरी कमर ऊपर से झुकी हुई है। दो–दो गठरियों का बोझ नहीं उठा सकता....कहीं मैं नदी में डूब ही ना जाऊँ। तुम एक गठरी और उठा लो....‘मजदूर एक रुपया और ले लेना।’
‘ठीक है लाओ।’
‘पर इसे लेकर कहीं तुम भाग तो नहीं जाओगे?’
‘क्यों, मैं क्यों भागूँगा?’
‘‘इसमें चाँदी के सिक्के हैं’
‘‘मैं आपको ऐसा चोर बेईमान दीखता हूं क्या?... बेफिक्र रहें मैं चांदी के सिक्कों के लालच में किसी को धोखा देने वालों में से नहीं हूँ.... लाइए ये गठरी मुझे दे दीजिये।’
दूसरी गठरी उठाकर मधुकांत ने नदी पार कर ली। चांदी के सिक्कों का लालच भी मधुकांत को नहीं डिगा पाया। थोड़ी दूर आगे चलने के बाद सामने एक पहाड़ी आ गई।
मधुकांत धीरे–धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगा लेकिन बूढ़ा अभी नीचे ही रूका हुआ था। मधुकांत ने कहा, ‘आइये ना, रुक क्यों गये?’’
‘‘मैं बूढ़ा आदमी हूं। ठीक से चल तो पाता नहीं हूँ , ऊपर से कमर पर एक गठरी का बोझ और उसके भी ऊपर पहाड़ी की दुर्ग चढ़ाई।’’
‘‘तो लाइये ये गठरी भी मुझे दे दीजिये। बेशक और मजदूरी भी मत देना।’’
‘‘पर इसे कैसे दे दूं? इसमें सोने के सिक्के हैं और अगर तुम लेकर भाग गए तो मैं बूढ़ा तुम्हारे पीछे भाग भी नहीं पाऊँगा।’’
‘‘बाबा मैं ऐसा आदमी नहीं हूं। ईमानदारी के चक्कर में ही तो मुझे मजदूरी करनी पड़ रही है वरना पहले मैं एक लाला जी के यहां मुनीम की नौकरी करता था। लालाजी मुझसे हिसाब में गड़बड़ करके लोगों को ठगने को कहते थे। मैंने ऐसा करने से मना कर दिया और नौकरी छोड़ कर चला आया।’ मधुकांत ने यों ही गप हाँकी।
‘‘पता नहीं तुम सच कह रहे हो या.....। खैर उठा लो ये सोने के सिक्कों वाली तीसरी गठरी भी। मैं धीरे–धीरे आता हूं। तुम मुझसे पहले पहाड़ी पार कर लो तो दूसरी तरफ नीचे रूककर मेरा इंतजार करना।’
मधुकांत सोने के सिक्कों वाली गठरी उठाकर चल पड़ा। बूढ़ा बहुत पीछे रह गया था। मधुकांत के दिमाग में आया, ‘अगर मैं भाग जाऊँ तो ये बूढ़ा तो मुझे पकड़ नहीं सकता और मैं एक झटके में मालामाल हो जाऊँगा। मेरी पत्नी जो मुझे रोज कोसती रहती है कितना खुश हो जाएगी। इतनी आसानी से मिलने वाली दौलत ठुकराना भी बेवकूफी है..... एक ही झटके में धनवान हो जाऊँगा। पैसा होगा तो इज्जत ऐश–आराम सब कुछ मिलेगा मुझे....।
मधुकांत के दिल में लालच आ गया और बिना पीछे देखे भाग खड़ा हुआ। तीन–तीन भारी गठरियों का बोझ उठाए–उठाए भागते–भागते उसकी साँस फूल गई।
घर पहुँचकर उसने गठरियां खोलकर देखीं तो अपना सिर पीटकर रह गया। गठरियों में सिक्कों जैसे बने हुए मिट्टी के ढेले ही थे। मधुकांत सोच में पड़ गया कि बूढ़े को इस तरह नाटक करने की जरूरत ही क्या थी। तभी उसकी पत्नी को मिट्टी के सिक्कों के ढेर से एक कागज मिला जिस पर लिखा था, यह नाटक इस राज्य के खजाने की सुरक्षा के लिए ईमानदार सुरक्षा मंत्री खोजने के लिए किया गया। परीक्षा लेने वाला बूढ़ा और कोई नहीं स्वयं महाराज ही थे। अगर तुम भाग न निकलते तो तुम्हें मंत्रिपद और मान सम्मान सब कुछ मिलता पर.....।
मधुकांत अपना सिर पीटकर रह गया, ‘मैं लालच ना करता तो मेरा ये जीवन की सफल हो जाता। कुछ नहीं तो कम से कम मजदूरी तो मिलती पर अब.... अब दोबारा जाऊँ या किसी को बताऊँ तो पकड़ा जाऊँगा।
अगले दिन उसे पता चला कि उस परीक्षा में और कोई नहीं मधुकांत का ही बचपन का दोस्त सत्यव्रत सफल हुआ है। मारे जलन के मधुकांत अपने बाल नोचकर रह गया। फिर भी वह अपने दोस्त सत्यव्रत को बधाई देने गया तो वह बोला – ‘‘भाई मेरा तो ख्याल है कि हर आदमी को हर वक्त अपनी ईमानदारी से काम करना चाहिए। ना जाने कब कहाँ कौन किसकी परीक्षा ले रहा हो और परीक्षा में सफल होकर कब किसकी जिन्दगी ही बदल जाए। जैसा कि मेरे साथ हुआ।


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कमल चोपड़ा
1600/114, त्रिनगर,
दिल्ली – 110035.