धरती हिन्दुस्तान की
-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
जहाँ आकरके रही लौटती सेनाएँ तूफ़ान की।
हमको प्राणों से भी प्यारी धरती हिन्दुस्तान की ॥
चारों वेदों के मन्त्रों से गूँजा ये आकाश था
जिसके चप्पे-चप्पे में सत् विद्या का प्रकाश था ।
जगद्गुरु बनकरके पताका ऊँची की सम्मान की ॥
गंगा–जमुना नहीं हैं नदियाँ पावन दूध की धारा हैं ।
इन्हीं के बलबूते पर हमने शत्रु को ललकारा है ।
इसी अमृत को पीकर हमने बाजी लगाई जान की ॥
बाहें मिलाकर वीर बाँकुरे शेरों से भी खेले हैं
अंगारों की बरसातों में वार भयंकर झेले हैं ।
गूँज रही अब तक हुंकारें 'वन्देमातरम्' गान की ॥
बहिनों ने भाई के माथे लहू के तिलक लगाए हैं
हाथों में तलवारें लेकर रण में जौहर दिखाए हैँ ।
मार –मार कर दुश्मन की सेनाएँ लहू-लुहान की ॥
अडिग हिमालय हम सब वासी सागर से गम्भीर हैं
दुश्मन की गर्दन की खातिर, हम पैनी शमशीर है ।
आई जिसे सींचती वाणी गीता और क़ुरान की ॥
हमको प्राणों से भी प्यारी धरती हिन्दुस्तान की ॥
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