Sunday, September 4, 2011

क्या हुआ इंसान को


-अभिषेक सिंहल

क्या हुआ इंसान को , संवेदना से भी झिझकता है,
अपरिचित की हत्या पर, केवल चर्चा करता रहता है ।
मरने वाले के परिजनों को रोते-बिलकते देखता है,
आँखों को मूँद कर तनाव मुक्त सुषुप्त हो जाता है ।
विचारहीन बातें कर, चाय की चुस्कियाँ लेता है,
तर्क-वितर्क कर, सरकार और व्यवस्था को कोसता है ।
देश और सरकार की निंदा कर, आक्रोश प्रकट करता है,
देश का कुछ नहीं हो सकता, कहते-कहते हँसता है ।
देश के प्रति कर्तव्य पर, नेताओं पर प्रश्न चिह्न लगता है ,
वोट डालने की प्रक्रिया पर, चुप्पी साधे रहता है।
निर्लज्ज है यह मनुष्य, जो कि जानवर से भी बदतर है ,
जानवर तो अपनी प्रजाति को ही अपना अस्तित्व समझता है ।
समाज में हुए उपद्रव को, परिवार से भिन्न क्यों समझता है ?
क्या अपने किसी परिजन के साथ कुछ होने की प्रतीक्षा करता है?
जब तक नहीं होगा हमारा नारा , “मेरा समाज मेरा परिवार”,
तब तक होते रहेंगे अत्याचार
हम पर हर बार, हर बार , हर बार
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