मंजूषा ‘मन’
दादी ने रखा था शहर
में पाँव।
भाई नहीं उनको यहाँ की हवा
चल ही न पाई ये जीवन की नाव।
ना दिखी थी धरती ना आसमान
जँची न किसी तरह उनको ये ठाँव।
पौधे ना थे न
फूलों की बगिया
चिड़िया की चूँ चूँ न कौए की काँव।
समझ आ गया मुझे दादी का
दुख
लो चलते हैं अब हम फिर से गाँव।
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Sundar
ReplyDeletePracheen va aadhunik jivan shaili ki tulna
कड़वा सच मंजूषा जी, सुंदर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteदादी के माध्यम से ग्रामीण और शहरी जीवन का अंतर बताती कविता बहुत सुंदर है , मञ्जूषा जी
ReplyDeleteबधाई
पुष्पा मेहरा
मँजुषाजी बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना बधाई।
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता
ReplyDeletebahut payari rachna hai mujhe bhi meri daadi ki yaad dila gayi...
ReplyDeleteदादा दादी तो अब किस्से कहानियों में रह गये।
ReplyDeleteप्रेरक भाव। हम सब मिलकर बुजुर्गों की भावनाओं की कद्र करें।।
सहज-सरल सी मन को छूती रचना । बधाई मंजूषा जी !
ReplyDeleteबीती बातें याद दिलाती बहुत सुन्दर रचना मंजूषा जी।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-10-2015) को "क्या रावण सचमुच मे मर गया" (चर्चा अंक-2139) (चर्चा अंक-2136) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
kadve sach par pyaari kavita !badhai manjusha ji !
ReplyDeleteजाने क्यों दादी के लिए लिखी यह कविता नैन भिगो गयी...| दिल से बधाई स्वीकार करिए...|
ReplyDeleteअपना गांव अपना छाँव
ReplyDeleteप्यारी सी कविता ............
ReplyDeletebahut sunder bhavpurn kavita
ReplyDeletebadhai
rachana
बहुत सच्ची कविता ...सच में नहीं भाता उन्हें शहरी जीवन !
ReplyDeleteबधाई मंजूषा जी !