Thursday, December 20, 2007

सोनमछरिया



रमेश तैलंग
ताल में जी ताल में
सोनमछरिया ताल में ।
मछुआरे ने मन्तर फूँका
जाल गया पाताल में ।

थर-थर काँपा ताल का पानी
फँसी जाल में मछली रानी
तड़प-तड़पकर सोनमछरिया
मछुआरे से बोली –भैया !

मुझे निकालो , मुझे निकालो
दम घुटता है जाल में ।
मछुआरे ने सोचा पलभर,
कहा-‘छोड़ दूँ तुझे मैं अगर

उठ जाएगा दाना-पानी
क्या होगा फिर मछली रानी ?’
मछली बोली ,रोती-रोती-
‘मेरे पास पड़े कुछ मोती ।

जल में छोड़ो ले आऊँगी
सारे तुझको दे जाऊँगी ।’
मछुआरे को बात जँच गई
बस मछली की जान बच गई।

मछुआरे को मोती देकर
जल में फुदकी मचली रानी !
सोनमछरिया मछुआरे की
खत्म हुई इस तरह कहानी ।

[ आलेख संवाद :नवम्बर 2005 से साभार ]


Sunday, November 25, 2007

टालूराम

नवीन सागर

करना है दस दिन में काम
हाँ! हाँ!
बोले टालूराम।

हमने कहा समझ लो काम
बोले कभी समझ लेंगे
हमने कहा करोगे कब
वो जब चाहोगे तब
पर पहले समझोगे तो!
बोले तभी समझ लेंगे।

जैसे–तैसे समझा काम
दसवें दिन हम उनका नाम
पूछ–पूछ के मार तमाम
लौटे जब थककर के शाम
घर के आगे टालूराम
बोले भैया जै जै राम!
हमने कहा हो गया काम?
फौरन बोले कैसा काम!
हमने कहा अरे वो काम,
बोले अच्छा–अच्छा वो
भूल रहा हूँ क्या था काम!
हमने याद दिलाया काम
बोले दिल से टालूराम
कर देंगे हाँ
कर देंगे।

फिर से दस दिन गुजर गए
गुजर गए दस दिन फिर से
हम गुस्से में भरे हुए
उनके आगे खड़े हुए
हमने कहा हो गया काम!
बोले दस दिन तो हो लें
हमने कहा हो चुके हैं
बोले अभी और होंगे
और हँस पड़े टालूराम।

उनके जाने कितने काम
इसी तरह से किए तमाम!

Wednesday, November 14, 2007

आमंत्रण

बालोपयोगी रचनाएँ आमंत्रित हैं। ई- मेल द्वारा कृतिदेव या यूनिकोड में रचनाएँ भेजे।मानदेय की व्यवस्था नहीं है।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' rdkamboj@gmail.com

दो बाल कथाएँ




:सुकेश साहनी

ऊँचाई



उदघाट्न समारोह में बहुत से रंगबिंरगे, खुबसूरत, गोल–मटोल गुब्बारों के बीच एक काला, बदसूरत गुब्बारा भी था, जिसकी सभी हँसी उड़ा रहे थे।
‘‘देखो, कितना बदसूरत है,’’ गोरे चिट्टे गुब्ब्बारे ने मुँह बनाते हुए कहा, ‘‘देखते ही उल्टी आती है।’’
‘‘अबे, मरियल!’’ सेब जैसा लाल गुब्बारा बोला, ‘‘तू तो दो कदम में ही टें बाल जाएगा, फूट यहाँ से!’’
‘‘भाइयों! ज़रा इसकी शक्ल तो देखो,’’ हरे–भरे गुब्बारे ने हँसते हुए कहा, ‘‘पैदाइशी भुक्खड़ लगता है।’’
सब हँसने लगे, पर बदसूरत गुब्बारा कुछ नहीं बोला। उसे पता था ऊँचा उठना उसकी रंगत पर नहीं बल्कि उसके भीतर क्या है, इस पर निर्भर है।
जब गुब्बारे छोड़े गए तो काला, बदसूरत गुब्बारा सबसे आगे था।


अक्ल बड़ी या भैंस




स्कूल से घर लौटते ही उदय ने चक्की के दो भारी पाट जैसे–तैसे स्टोर से बाहर निकाल लिए। फिर उन्हें लोहे की एक छड़ के, दोनों सिरों पर फंसा कर भारोत्तोलन का प्रयास करने लगा। चक्की के पाट बहुत भारी थे। प्रथम प्रयास में ही उसके पीठ में दर्द जागा और वह चीख पड़ा।
उसकी चीख सुनकर माँ रसोईघर से दौड़ती हुई आ गई। उदय की पीठ में असहनीय पीड़ा हो रही थी। उन्होंने उदय को तब कुछ नहीं कहा। वे उदय को एक तरह से एक अच्छा लड़का मानती थी। उदय जब कुछ राहत–सी महसूस करने लगा तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, तुम्हें आज यह क्या सूझी?’’
जवाब में उदय की आँखें भर आईं, ‘‘माँ, आज स्कूल में मदन ने फिर मेरा हाथ उमेठ दिया। वह मुझसे बहुत तगड़ा है। मैं उससे भी ज्यादा तगड़ा बनूँगा।’’
‘‘अच्छा, पहले यह बताओ, स्कूल में तुम्हारे अध्यापक किसे अधिक चाहते हैं, तुम्हें या मदन को?’’
‘‘मुझे।’’
माँ ने उसे समझाया ‘‘तुम्हारी बातों से स्पष्ट है कि मदन में शारीरिक बल है, बुद्धि नहीं है। बुद्धिमान आदमी अपने गुण की डींगे नहीं हाँकता। तुम चाहो तो अपनी बुद्धि के बल पर उसका घमंड दूर कर सकते हो।’’
माँ के समझाने से उदय को नई शक्ति मिली! वह सोचने लगा सोचते–सोचते उसकी आँखें खुशी से चमक उठीं।
अगले दिन खेल के मैदान में उदय अपने कुछ मित्रों के साथ खड़ा था। तभी वहाँ मदन भी आ गया। अपनी आदत के मुताबिक आते ही उसने डींग हाँकनी शुरू की, ‘‘देखो, मैं यह पत्थर कितनी दूर फेंक सकता हूँ।’’ इतना कहकर वह एक भारी से पत्थर को फेंक कर दिखाने लगा।
‘‘मदन, मुझसे मुकाबला करोगे?’’ उदय ने पूछा,
‘‘अब तू! जा मरियल, तू क्या खा कर मेरा मुकाबला करेगा?’’ मदन ने उसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा।
‘‘ज्यादा घमंड ठीक नहीं होता, ‘‘उदय ने अपना रूमाल उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा ‘‘इस रूमाल को ही जरा उस पत्थर तक फेंक कर दिखा दो।’’
‘‘बस ये....ये लो।’’ मदन ने पूरी ताकत से रूमाल फेंका। रूमाल हवा में लहराता हुआ पास ही गिर गया।
उदय ने हँसते हुए कहा, ‘‘तुम इस जरा से रूमाल को ही फेंक पाए, पर मैं इस रूमाल के साथ–साथ एक पत्थर को भी तुमसे अधिक दूरी पर फेंक सकता हूँ।’’ यह कह कर उदय ने रूमाल में पत्थर लपेटा और उसे काफी दूर फेंक दिया। सभी लड़के जोर–जोर से तालियाँ बजाकर हंसने लगे। मदन का चेहरा मारे शर्म के लाल हो गया। वह चुपचाप वहाँ से खिसक गया।
शाम को उदय खुशी–खुशी स्कूल से लौट रहा था। वह आज की घटना जल्दी से जल्दी अपनी माँ को बताना चाहता था।

Monday, November 12, 2007

5-कविताएँ




रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'



1-मेरी नानी


मेरी नानी अच्छी नानी
बातें मैंने सारी मानी ।
रात हो गई मुझे सुनाओ
परियों वाली एक कहानी।
वही कहानी बड़ी पुरानी
जिसमें हो परियों की रानी ।

2- भारी बस्ता



माँ मुझसे यह नहीं उठेगा
बस्ता इतना भारी ।
इस बस्ते के आगे मेरी
हिम्मत बिल्कुल हारी
बोझ करा दो कुछ कम इसका
सुनलो बात हमारी ।


3-पत्ता

टूट गया जब डाल से पत्ता
उड़कर जा पहुँचा कलकत्ता
भीड़ देख्कर वह घबराया
धूल –धुएँ से सिर चकराया.
शोर सुना तो फट गए कान
वापस फिर बगिया में आया ॥


4- दादा जी
ये मेरे प्यारे दादा जी
हैं सबसे न्यारे दादा जी।
उठ सवेरे घूमने जाते
सूरज उगते वापस आते।
नहा-धोकर पूजा करत
जोश सभी के मन में भरते ।
.
5-रोमा
रोमा घर की पहरेदार
साथ में उसकी पिल्ले चार ।
चारों पिल्ले हैं शैतान
इधर- उधर हैं दौड़ लगाते
बिना बात भौंकते हैं जब
डाँट बहुत रोमा की खाते

Sunday, November 11, 2007

3-बाल कविताएँ

अलका सिन्हा

1-लाल पतंग

नीले- नीले आसमान में
देखो उड़ती लाल पतंग।

इक पतली सी डोर सहारे
पूरब पश्चिम खूब निहारे
देख हवा से होड़ लगाते
रह जाते पंछी भी दंग।


कभी अटक पुच्छल तारे- सी
कभी यह लाल अंगारे- सी
गोल -गोल ये भँवर बनाती
नए- नए करतब के ढंग।

जात -धर्म का भेद न माने
ये तो केवल उड़ना जाने
हिन्दू –मुस्लिम- सिख उड़ाएँ
उड़ती जाए सबके संग।

नीले- नीले आसमान में
देखो उड़ती लाल पतंग।




2-कागज और पेड़

दो अक्षर लिखकर क्यों
फाड़ दिया पन्ना सारा
भूल हुई है तुमसे लेकिन
भुगत रहा यह बेचारा

क्यों हड़बड़ में गड़बड़ कर दी
कुछ तो सब्र किया होता
लिख लेते कुछ देर बाद में
पहले सोच लिया होता

तुम क्या जानो पेड़ बेचारा
खुद को घायल करता है
बरसों रहता सड़ा–गला तब
पन्ना एक संवरता है

दो अक्षर पर पेज फाड़ना
पड़ता है मंहगा कितना
एक–एक है पेड़ कीमती
धरती का सुंदर गहना

पेड़ कटें तो आँधी पानी
बन जाता है ये मौसम
पड़ने लगती गरमी भारी
रिमझिम का संगीत खतम

कोयल गीत कहाँ गायेगी
कैसे महकेंगी कलियाँ
तेज धूप में जरा छाँव को
तरसेंगी सूनी गलियाँ

टीचर मेरी बतलाती है
जब भी कोई पेज फटा
सोच समझ लो प्यारे बच्चो
बेकसूर इक पेड़ कटा ।

ये अन्याय न होने देंगे
व्यर्थ फटे कोई पन्ना
अब तो पेड़ लगायेंगे हम
हराभरा और घना–घना।



3-वाह चुहिया !

वाह चुहिया का नहीं जवाब ।

खदर -बदर कर भाग रही है
इधर–उधर से झांक रही है
मन मर्जी की मालिक जैसे
हम हों नौकर, यही नवाब ।

टीवी से सोफे पर भागी
ऊपर–नीचे दौड़ लगा दी
तुम क्या इससे जीत सकोगे
है हिम्मत तो भिड़ो जनाब ।

महक सूँघकर दौड़ी आती
कागज–कपड़ा सब ले जाती
यहाँ छुपाती ,वहाँ छुपाती
खाती रोटी और कबाब ।

रात–रात भर पढ़ना पड़ता
जिस किताब का पन्ना -पन्ना
तूने उसे कुतर ही डाला
तुझे मिलेगा खूब सवाब ।

अटकाया रोटी का टुकड़ा
उसमें थोड़ा घी भी चुपड़ा
मगर गंध चूहेदानी की
समझा देती सभी हिसाब ।

वाह !चुहिया का नहीं जवाब !

३-बाल–गीत

नवीन चतुर्वेदी

1- बंदर मामा धम्म धडाम



बंदर कूदा डाली–डाली
मारी एक छलांग ,
नीचे से गदहा चिल्लाया
मामा मेरा सलाम।
बंदर मामा ने सलाम को
ज्यों ही हाथ उठाया ,
फिसला पैर , गिरे धरती पर
सीधे धम्म धडाम।

2- हाथी का पाजामा

हाथी ने अपनी शादी में
पाजामा सिलवाया ,
नाप लिया बंदर मामा ने
उन्हें पसीना आया।
बोले–‘‘इसमें लग जाएंगे
पूरे दो-दो थान।‘‘
हाथी बोला–‘‘एक थान में
मामा जाओ मान।‘‘
बंदर बोला–‘‘नही–नहीं फिर
अंडरवियर सिलाओ
उसे पहनकर धूम–धाम से
ब्याह रचाने जाओ।”
….……………


3- शिकारी की शान


जंगल भर में शोर मच गया
आया एक शिकारी ,
जिसने आकर चार बतख
और एक लोमड़ी मारी।
हाथी बोला–‘‘मुझे अगर
मिल जाए वह शैतान ,
सिर से पकड़ पटक दूँ फौरन
और निकालूँ शान ।”

Friday, November 9, 2007

दिया जलता रहे


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

यह ज़िन्दगी का कारवाँ ,इस तरह चलता रहे ।
हर देहरी पर अँधेरों में दिया जलता रहे ॥
आदमी है आदमी तब ,जब अँधेरों से लड़े ।
रोशनी बनकर सदा ,सुनसान पथ पर भी बढ़े ॥
भोर मन की हारती कब ,घोर काली रात से ।
न आस्था के दीप डरते ,आँधियों के घात से ॥
मंज़िलें उसको मिलेंगी जो निराशा से लड़े ,
चाँद- सूरज की तरह ,उगता रहे ढलता रहे ।
जब हम आगे बढ़ेंगे , आस की बाती जलाकर।
तारों –भरा आसमाँ ,उतर आएगा धरा पर ॥
आँख में आँसू नहीं होंगे किसी भी द्वार के ।
और आँगन में खिलेंगे ,सुमन समता –प्यार के ॥
वैर के विद्वेष के कभी शूल पथ में न उगें ,
धरा से आकाश तक बस प्यार ही पलता रहे

तनाव के त्रिभुज में घिरे बच्चे


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
आज का दौर तरह-तरह के तनाव को जन्म देने वाला है ,घर-परिवार ,कार्यालय ,सामाजिक परिवेश का वातावरण निरन्तर जटिल एवं तनावपूर्ण होता जा रहा है ,इसका सबसे पहले शिकार बनते हैं निरीह बच्चे ।घर हो या स्कूल , बच्चे, समझ ही नहीं पाते कि आखिरकार उन्हें माता-पिता या शिक्षकों के मानसिक तनाव का दण्ड क्यों भुगतना पड़ता है। घर में अपने पति /पत्नी या बच्चों से परेशान शिक्षक अपने छात्रों पर गुस्सा निकालकर पूरे वातावरण को असहज एवं दूषित कर देते हैं। विद्यालय से लौटकर घर जाने पर फिर घर को भी नरक में तब्दील करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते ।यह प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण छात्रों के मन पर गहरा घाव छोड़ जाता है । कोरे ज्ञान की तलवार बच्चों को काट सकती है ,उन्हें संवेदनशील इंसान नहीं बना सकती है ।शिक्षक की नौकरी किसी जुझारू पुलिसवाले की नौकरी नहीं है,जिसे डाकू या चोरों से दो-चार होना पड़ता है ।शिक्षक का व्यवसाय बहुत ज़िम्मेदार, संवेदनशील ,सहज जीवन जीने वाले व्यक्ति का कार्य है ; मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति का कार्य- क्षेत्र नहीं है । आज नहीं तो कल ऐसे दायित्वहीन,असंवेदनशील लोगों को इस क्षेत्र से हटना पड़ेगा या हटाना पड़ेगा।प्रशासन को भी यह देखना होगा कि कहीं इस तनाव के निर्माण में उसकी कोई भूमिका तो नहीं है ?
छात्रों पर बढ़ता निरन्तर पढ़ाई का दबाव ,अच्छा परीक्षा-परिणाम देने की गलाकाट प्रतियोगिता कहीं उनका बचपन ,उनका सहज जीवन तो नहीं छीन ले रही है ?घर,विद्यालय ,कोचिंग सैण्टर सब मिलकर एक दमघोंटू वातावरण का सर्जन कर रहे हैं । बच्चे मशीन नहीं हैं ।बच्चे चिड़ियों की तरह चहकना क्यों भूल गए हैं? खुलकर खिलखिलाना क्यों छोड़ चुके हैं ?माता-पिता या शिक्षकों से क्यों दूर होते जा रहे हैं ? उनसे अपने मन की बात क्यों नही कहते ? यह दूरी निरन्तर क्यों बढ़ती जा रही है ?अपनापन बेगानेपन में क्यों बदलता जा रहा है? यह यक्ष –प्रश्न हम सबके सामने खड़ा है। हमें इसका उत्तर तुरन्त खोजना है ।मानसिक रूप से बीमार लोगों को शिक्षा क्षेत्र से दूर करना है ।मानसिक सुरक्षा का अभाव नन्हें-मुन्नों के अनेक कष्टों एवं उपेक्षा का कारण बनता जा रहा है ।क्रूर और मानसिक रोगियों के लिए शिक्षा का क्षेत्र नहीं है ।जिनके पास हज़ारों माओं का हृदय नहीं है ,वे शिक्षा के क्षेत्र को केवल दूषित कर सकते हैं ,बच्चों को प्रताड़ित करके उनके मन में शिक्षा के प्रति केवल अरुचि ही पैदा कर सकते हैं।हम सब मिलकर इसका सकारात्मक समाधान खोजने के लिए तैयार हो जाएँ ।