Friday, November 9, 2007

दिया जलता रहे


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

यह ज़िन्दगी का कारवाँ ,इस तरह चलता रहे ।
हर देहरी पर अँधेरों में दिया जलता रहे ॥
आदमी है आदमी तब ,जब अँधेरों से लड़े ।
रोशनी बनकर सदा ,सुनसान पथ पर भी बढ़े ॥
भोर मन की हारती कब ,घोर काली रात से ।
न आस्था के दीप डरते ,आँधियों के घात से ॥
मंज़िलें उसको मिलेंगी जो निराशा से लड़े ,
चाँद- सूरज की तरह ,उगता रहे ढलता रहे ।
जब हम आगे बढ़ेंगे , आस की बाती जलाकर।
तारों –भरा आसमाँ ,उतर आएगा धरा पर ॥
आँख में आँसू नहीं होंगे किसी भी द्वार के ।
और आँगन में खिलेंगे ,सुमन समता –प्यार के ॥
वैर के विद्वेष के कभी शूल पथ में न उगें ,
धरा से आकाश तक बस प्यार ही पलता रहे

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